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Travelogue Ranchi To Nepal By Road: सपना लद्दाख का था पूरा नेपाल हो रहा था

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यात्रा शुरू 

 
रोड ट्रीप की योजना एक दिन की नहीं होती, आप कई सालों से इसके लिए योजना बना रहे होते हैं. हमारे साथ थोड़ा अलग था, हमने कभी लद्दाख से कम दूरी की रोड ट्रीप पर विचार नहीं किया. नेपाल कुछ महीने पहले ही हमारी लिस्ट में जुड़ा था. हम तो लद्दाख से नीचे सोचते ही नहीं थे. चाय की दुकान पर बैठे- बैठे उदय शंकर झा के साथ अचानक यह योजना बनायी. छुट्टी के लिए आवेदन कर दिया और अब दिन और तारीख तय हो गयी. 3.11.2017 यही तारीख थी जिस दिन हमारी यात्रा शुरू हो रही थी. कोई तैयारी नहीं, ना कपड़े धुले थे, ना तबीयत अच्छी थी. चार दिनों से खांसी और सरदी ने पहले ही पूरी योजना को ठंडे बस्ते में डालने का इशारा कर दिया था. हम उसके इशारे को नजरअंदाज करके गंदे कपड़े और खराब तबीयत के साथ यात्रा के लिए तैयार थे.

70 की स्पीड में जब आगे वाले ट्रक ने अचानक मारी ब्रेक  

रांची से सुबह सात बजे जब बाइक स्टार्ट हुई,तो महसूस हुआ कि इस दिन का इंतजार सालों से था. आज रोड ट्रीप का सपना पूरा हो रहा था. इस सफर के लिए भी कितना लंबा सफर तय करना पड़ा था. किसी सपने के पूरा होने का अहसास कई सालों के बाद महसूस हो रहा था. शुरूआत धीमी थी, रांची पीछे छूटा, रामगढ़, हजारीबाग, बरही होते हुए गया पहुंचे. गया से बुलेट की स्पीड थोड़ी बढ़ी क्योंकि अब दिन चढ़ने लगा था. अभी थोड़ी दूर ही निकला था. मेरे आगे एक ट्रक 70 की स्पीड में था लेकिन ये स्पीड मेरी रफ्तार कम कर रही थी. मैंने उसे ओवरटेक करने के लिए स्पीड बढ़ायी. जैसे ही स्पीड बढ़ी ट्रक ने अचानक इमरजेंसी ब्रेक लगा दिया. मैं ट्रक के ठीक पीछे था .

पहली दुर्घटना 

ब्रेक लगाया लेकिन बाइक की स्पीड कम हुई ,रूकी नहीं, बाइक सीधे ट्रक से जाकर भिड़ गयी. बाइक की हेडलाइट, शॉकर , स्पीडो मीटर सब टूट गये. हम ट्रक वाले को आवाज देते रहे लेकिन उसने फिर रफ्तार पकड़ ली. इससे पहले की हम अपने नकुसान का आकलन करते ट्रक दूर निकलने लगा था . मैंने बाइक स्टार्ट की, गुस्से में ट्रक को दोबारा ओवरटेक किया. आगे जाकर बीच रास्ते पर गाड़ी रोकककर खड़ा हो गया. ट्रक को मजबूरन रूकना पड़ा. मैं गुस्से में ड्राइवर के पास गया, तो देखा एक 70- 75 साल के बुजुर्ग बड़े प्यार से पूछ रहे हैं का होलवा बहुआ ( क्या हो गया बाबू) उनकी उम्र और हल्की आवाज ने मेरा गुस्सा कम कर दिया था.

लड़ते तो किससे 

मैंने बाइक की तरफ इशारा करते हुए कहा, देखिये क्या किया है आपने. उन्होंने कहा का करती हल हमरो सामने अचानक टैंपू आ गेल तो रोके के परल ( क्या करता मेरे सामने भी अचानक ऑटो आ गया रोकना पड़ा) . आपने हमारी आावाज तक नहीं सुनी हम चिल्लाते रहे. मैंने गौर किया कि भीड़ जमा हो गयी है, कई लोग उन्हें डांटने लगे हैं. कुछ लोग बोल रहे हैं पैसा भरिये पूरा. मैंने भी कहा, इतना नुकसान हो गया इसकी भरपाई कौन करेगा चलिये पैसा निकालिये या कहीं बनाइये पूरा. अब मैं आपको ये नहीं बताऊंगा कि उन्होंने आगे क्या कहा, बस आप अंदाजा लगा लीजिए की उनके आगे की लाइन क्या होगी?. आपको बस इतना इशारा कर सकता हूं कि इस तरह की घटना में 90 फीसद ट्रक, ऑटो ड्राइवर वही लाइन दोहराते हैं. मैंने उनसे आगे बढ़ने का इशारा किया और हिदायत दी कि आगे ध्यान से चलाइये मैं जाने दे रहा हूं सभी जाने नहीं देंगे.

सब टूटा था बाइक भी और हम भी 

रोड ट्रीप के कुछ घंटों के बाद ही ऐसी घटना हुई थी. गाड़ी की हेडलाइट और स्पीडो मीटर टूटा था, हमारी हिम्मत नहीं. हां इस दुर्घटना ने राइडिंग का मजा थोड़ा कम जरूर कर दिया था. पटना पहुंचे, तो पहले बाइक बनवायी. बाइक की हेडलाइट बनी तो लगा जैसे हमारा जोश भी ठोक पीटकर ऊपर वाले ने ठीक कर दिया. दोबारा वही उत्साह हालांकि अब स्पीड कम हो गयी थी. पटना , वैशाली फिर सीतामढ़ी. झारखंड से होते हुए जब आप बिहार में प्रवेश करेंगे. आपको वहां की हवा बता देगी बेटा, बिहार में हो. बीच डिवाइडर पर सूखते गोइठे, बैलगाड़ी से लादकर धान लाते किसान के माथे पर बंधा मुरेठा . साइकिल पर भोजपुरी गाने बजाकर चलता स्कूली बच्चा, जिसका मोबाइल चीख- चीख के अपना परिचय दे रहा होता है. हूं, तो मैं चाइना का लेकिन ये लहरिया काटकर साइकिल चला रहा लड़का 18 घंटे बजाकर बता देता है, बेटा बिहारी के हाथ में हो खराब कैसे हो जाओगे बे.

बरही से डोभी तक का खराब रास्ता बताता है कि बिहार आने की राह आसान नहीं है. .डोभी की रबड़ी बिहारी स्वाद से परिचय करा देती है, जो कई सालों से भूल था. पटना से होते हुए हाजीपुर - वैशाली का पूरा रास्ता बिहार के गौरवपूर्ण इतिहास और परंपरा का गर्व महसूस कराता है. इन रास्तों पर आखें सड़क के किनारे लगे पर्यटन विभाग के कई प्रचार बोर्ड पर जाता है, जो मजबूर करता है कि आप वैशाली घूम लीजिए. मंजिल तय थी सीतामढ़ी. वैशाली घूम चुका हूं इसलिए हैंडिल उस तरफ नहीं मुड़े.

बोर्डर क्रॉस करने का रोमांच 

सीतामढ़ी से निकलकर अब नेपाल में प्रवेश करना था. पहले दिन लगभग 700 किमी मोटरसाइकिल चलाने के बाद भी सुबह उठा, तो थकान कम बोर्डर प्रवेश करने का रोमांच ज्यादा था. सीतामढ़ी के बाद गौर बोर्डर होते हुए नेपाल में प्रवेश हुआ तो पहला भ्रम टूटा . किसी देश के बोर्डर को लेकर आपके दिमाग में क्या छवि होगी ? जाहिर है, लंबी काटें की तारें, कड़ी सुरक्षा, चेकपोस्ट, खतरनाक चेकिंग जहां कपड़े तक उतरवा लिये जाते हैं, एक - एक सामान की जांच. इस छवि के साथ कब बोर्डर पार कर गया पता नहीं चला. आगे बढ़कर चाय की दुकान पर रूका, पूछा बोर्डर कितनी दूर है.

गले में लाल रंग का गमछा लपेटे चायवाला ने कहा, अरे पिछेही ना छोर आये बोर्डर. गारी का पेपर बनवाये कि नहीं... ये सुनकर चाय गले से नीचे कहां उतरती . बाइक पीछे मोड़कर गाड़ी की स्पीड बढायी, तो देखा सड़क पर कुछ टीन के बड़े डब्बे के साथ हमारी खांकी से अलग वर्दी पहने कुछ पुलिस वाले खड़े थे. मैं सिर्फ अपनी बनायी छवि के कारण ही बोर्डर पार कर गया था.

गाड़ी के पेपर दिखाकर हमने अंदर प्रवेश की अनुमति ली. इसके लिए हमें 300 रुपये देने पड़े. मैं यकीन नहीं कर पा रहा था कि नेपाल में हूं. महसूस हुआ जैसे बिहार के किसी दूरदराज इलाके से गुजर रहा हूं . चाय की कसर बाकी थी, सोचा नेपाल के चाय का स्वाद अलग होगा, ज्यादा चीनी होगी या ज्यादा चाय की पत्ती या ग्रीन टी, कुछ तो अलग मिलेगा लेकिन यहां तो स्वाद भी वहीं और चर्चा भी अपने चाय की दुकान वाली . दुकान पर चाय को राजनीतिक तौर पर और मजबूत बनाने वाले हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चर्चा थी.

मोदिया खाली साफे सफाई में लगल रहतिई कि कुछ कामो करतई . मैं ऐसे वक्त में नेपाल में था.जब नेपाल में चुनाव होने वाले हैं लेकिन चाय की दुकान पर चर्चा भारतीय राजनीति की थी. नेपाल में राजनीति पर चर्चा हो वो भी बिहार की भाषा में, तो हम खुद को कैसे रोकते हम भी उस मंडली में शामिल हो गये थे...


Travelogue Ranchi To Nepal By Road: मैं, मेरा जिगरी यार और बुलेट

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रांची से नेपाल की यात्रा 


रांची से नेपाल की यह यात्रा आसान नहीं थी। नेपाल भले ही अपने देश जैसा लगता हो लेकिन थी तो यह किसी और देश की यात्रा। अंतरराष्ट्रीय बाइक राइड पर इस यात्रा का रोमांच हम आज भी महसूस करते हैं। 

किसी भी नये शहर की यात्रा से पहले उस जगह को लेकर आपके दिमाग में एक छवि बनती है. कई चीजें आप इंटरनेट पर तलाशते हैं या कुछ ऐसे लोगों से मिलने की कोशिश करते हैं, जो उस शहर को अच्छी तरह जानते हों. इस पूरी प्रक्रिया में उस शहर को लेकर आपके दिमाग में एक छवि बन जाती है. आपके पास जितनी जानकारी अलग- अलग माध्यमों से इकट्ठा हुई ,उसे आप समेट कर शहर का नक्शा बना लेते हैं. लेकिन मेरी यात्रा में, तो शहर ही नहीं देश बदल रहा था. यात्रा किसी हवाई जहाज, ट्रेन या बस से नहीं थी.


यह एक रोड ट्रीप थी. जिसमें आप कई शहरों से होकर गुजरने वाले थे. शुरुआत में ही महसूस हो गया कि रोड ट्रीप में अलग- अलग अनुभव आपके द्वारा बनायी गयी, शहर और लोगों के स्वभाव की छवि को चैलेंज करते हैं. आपकी मंजिल दूर है, रास्ते तय नहीं है. बीच रास्ते से कहीं भी निकल जाने का रोमांच, आपके अंदर उत्साह भरता है. रांची से नेपाल की यात्रा का अनुभव उन हजारों पुस्तकों के ज्ञान की तरह है जिसे पढ़कर मैं सिर्फ कल्पना कर सकता था.

कल्पना और हकीकत का सफर मेरे लिए बिल्कुल वैसा है जैसे कुछ घंटों में फ्लाइट पकड़कर सीधे किसी दूसरी जगह पहुंच जाना. लेकिन हवाई जहाज के इस सफर में छोटी जगहों की खूबसूरती , पहाड़ों से झांकती सुबह की धुंधली रौशनी कहां ? इस यात्रा ने ऐसे कई क्षण दिये जिसने मेरी सोच बदल दी. सोचता था, भूकंप के बाद नेपाल के लोग टूट गये होंगे, फिर से शुरूआत करना इतना आसान कहां होता है.? सारी पूंजी खत्म होने के बाद बहुत कम लोगों में दोबारा खड़े होने की हिम्मत होती है. जिस नेपाल की छवि दिमाग में बनी थी. किताबों में हिम्मत और जिस जज्बे को बहुत कम लोगों में होना बताया जाता है. इस रोड ट्रीप ने उन सारी धाराणाओं को तोड़ दिया था। 11 सितंबर दिन मंगलवार से आठ कड़ी में आप इस यात्रा की कहानी, इसके वीडियो और तस्वीरों के माध्यम से सफर कर सकेंगे। आठ दिन चलने वाले इस सफर में आपका इंतजार रहेगा आइयेगा जरूर 



क्या 2024 में डुमरी विधानसभा में यही परिमाण होगा या पासा पलटेगा?

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क्या फिर डुमरी दोहरायेगा इतिहास 


क्या साल 2024 के विधानसभा चुनाव में डुमरी उपचुनाव का यही परिणाम होगा ? डुमरी उपचुनाव ने भले ही एक सवाल का जवाब दे दिया लेकिन इस जीत ने नया सवाल खड़ा कर दिया है। अगले विधानसभा सीट में बेबी देवी चुनाव मैदान में नहीं होंगी। इस बार इस सीट से चुनाव लड़ेंगे जगरनाथ महतो के बेटे अखिलेश कुमार महतो उर्फ राजू।  

डुमरी विधानसभा उप चुनाव में स्व : जगरनाथ महतो की पत्नी बेबी देवी चुनाव जीत गयीं। NDA प्रत्याशी यशोदा देवी और आईएनडीए की प्रत्याशी बेबी देवी के बीच  कांटे की टक्कर देखने रही।  बेबी देवी ने यशोदा देवी को 17156 वोटों से हराया। एनडीए और इंडिया गठबंधन के सभी साथी मानते हैं कि इस जीत में जगरनाथ महतो का बड़ा हिस्सा है। जनता उनसे प्रेम करती थी यही वजह है कि बेबी देवी ने जीत हासिल की है। 

अपने पहले सवाल के जवाब को इस जीत टटोलने की कोशिश करें आप अपना आंकलन भी बताइयेगा ये मेरी निजी, व्यक्तिगत राय है।

आंकड़े समझिए

 झामुमो की उम्मीदवार बेबी देवी को करीब 1,35,480 वोट मिले है। आजसू की उम्मीदवार यशोदा देवी को लगभग 1,18,380 वोट मिले हैं। जीत का अंतर 17 हजार से कुछ ज्यादा वोट का है। अब सीधे चलते हैं पुराने आंकड़े पर जिस समय साल 2019 में जगरनाथ महतो चुनाव जीते थे उस वक्त उनकी जीत का अंतर कितना था कितने वोट मिले थे।  जेएमएम से जगरनाथ महतो ने साल 2019 में  आजसू की यशोदा देवी को करीब 34,288 मतों के अंतर से शिकस्त दी थी। जगरनाथ महतो को पहली बार 2005 में जीत नसीब हुई. उसके बाद 2009, 2014 व 2019 में ये सिलसिला ज़ारी रहा। 

आंकड़ों से समझ पा रहे हैं तो ठीक है नहीं तो साधारण सरल शब्दों में समझिए जब पूरे देश में मोदी की लहर में कई पुराने नेता हवा हो गये थे वहीं जगरनाथ महतो अपने क्षेत्र से जीत हासिल की थी। इस बार डुमरी उपचुनाव के जो नतीजे आये हैं वो इशारा कर रहे हैं कि अगर जगरनाथ महतो के बेटे अखिलेश महतो ने मेहनत नहीं की तो जीत मुश्किल है। 

जनता का मिजाज 

क्षेत्र की जनता ने बेबी देवी का साथ दिया है जरूरी नहीं है कि वह अखिलेश महतो में जगरनाथ महतो की छवि देख पाए। अखिलेश इसी बार चुनाव के मूड में थे बेबी देवी भी चाहती थी कि उनका बेटा पिता की विरासत संभाले लेकिन समय से पहले उनके कम उम्र की चर्चा तेज हो गयी बेबी देवी को आगे आना पड़ा लेकिन अगले चुनाव तक अखिलेश की उम्र भी पूरी हो रही है और वह चुनाव के लिए पूरी तरह तैयार हो जायेंगे। जीत का अंतर पिछली बार से कम हुआ यशोदा देवी ने कड़ी टक्कर दी है। एआईएमआईएम ने भी मुस्लिम वोट पर अपनी पकड़ कमजोर कर ली तो यह जीत आसानी से मिली है।  

आसान नहीं होगी राह 

अगले विधानसभा चुनाव में अखिलेश महतो ऊर्फ राजू की राह आसान नहीं होगी। पिता की विरासत अपने कांधे पर लेने के लिए उन्हें एक बेहतरीन समय मिला है जिसमें वह जनता के बीच जाकर यह बता सकते हैं कि वह इस जिम्मेदारी के योग्य हैं वह अपने पिता की तरह सोचते हैं। अगर इसमें राजू सफल रहे तब तो ठीक और अगर नहीं रहे तो...  

आजादी के जश्न में डूब गये हैं सब

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independence day 2023

आजादी के जश्न में डूब गये है सब

 कौन आजाद है और कौन गुलाम 

इस सवाल से ऊब गये हैं सब 


आजादी है तो सबके हिस्से 

बंधी है कुछ के पैरों में गरीबी और बेरोजगारी की बेड़ियां 

आजादी छोड़ों इन बेड़ियों में बंधे टूट गये हैं वो सब

अब सिर्फ चुनी सरकार बोलेगी

 चुप रहोगे तुम सब

एक बार मौका मिला जब तुमने जनादेश दिया

 चुनाव के वक्त तो फैसला तुम्हारा था ना 

 चुप थे सरकार के नेता चमचे सब


किया फैसला तो अब सुनो, सिर्फ सुनो 

आकर नेता तुम्हारे पास 

बेरोजगारी,गरीबी बेड़ियों को नजरअंदाज करके 

कहेंगे बढ़िया चल रहा है सब

आजादी के जश्न में डूब गये है सब

कौन आजाद है और कौन गुलाम 

इस सवाल से अब ऊब गये हैं सब 


याद रखना एक मौका फिर आयेगा 

जब तुम्हें कहने का मौका दिया जायेगा 

जनादेश जरा सोच समझ कर देना

गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी की बेडि़यों को 

फिर हल्के में मत लेना 

धर्म, जाति, प्रांत के नाम पर पहले बांटा जायेगा

 टूट गये तो जर्रे- जर्रे को बिखेरा जायेगा 

कौन सच्चा है कौन झुठा तुम जानते हो

 राजनीति समझों देश की 

तुम्हारे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा 

तुम खूब पहचानते हो

टूट गये तो देश टूट जायेगा 

एक रहो साथ चलो,

सब तुम्हारे पीछे आयेगा

 देश की बागडोर तुम्हारे ही हाथों में है अब 

आजादी के जश्न में डूब गये है सब

 कौन आजाद है और कौन गुलाम 

इस सवाल से अब ऊब गये हैं सब 

लिखने पर लिखना आसान है या मुश्किल

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How to write


हर बार आप कुछ लिखने बैठे और आप जो लिखना चाह रहे हैं वो लिख ही दें जरूरी नहीं है। लिखते- लिखते कभी विषय बदल जाते हैं या जो सोचकर लिखने बैठे हैं लिखते - लिखते सोच बदल जाती है। कई बार लगता है, जो सोचकर लिखने बैठा वो एकदम सटीक शब्दों में पन्ने पर उतार पाया, तो कई बार लगता है जो सोचा था उसे लिख ही नहीं सका।  कभी - कभी तो कई बार अपने लिखे को पढ़कर लगता है अरे वाह ये तो सोचा भी नहीं थो जो लिख दिया। लिखना है क्या कैसे लिखा जाए। 

लिखना और लिखते रहना 

लिखना आदत होनी चाहिए, क्या लिखना है कैसे लिखना और कितना लिखना सब अभ्यास का खेल है। कई बार जब आप लिखने बैठेंगे, तो शब्द दौड़कर आपकी ऊंगलियों के रास्ते से पन्ने पर उतर जायेंगे, तो कई बार शब्द जहन में, तो होंगे लेकिन पन्ने पर उतरने में समय लगायेंगे।

 जितना लिखेंगे उतना ही शब्दों का परिवार आपका बड़ा होता जायेगा।  कई लोगों को मानना है कि आप जितना पढ़ेंगे उतना ही बेहतर लिख पायेंगे। कई लोगों में मैं भी हूं लेकिन इसमें थोड़े बदलाव के साथ आप जितना पढ़ेंगे, जितना सुनेंगे, जितना देखेंगे उतना ही बेहतर लिख पायेंगे। वक्त बदला है, तो लिखने का माध्यम और तरीका भी बदला है इसलिए मेरा मानना है कि आपके आंख, कान और कभी- कभी नाक भी ठीक से खुले रखने चाहिए। 



कैसे लेखनी होगी मजबूत 

लिखते- लिखते कभी आपने सोचा है कि ये बेहतर लिखने वाले ऐसा क्या लिख देते हैं कि उनके लिखने पर इतना कुछ लिखा और पढ़ा जाता है। लिखने वाले अक्सर कई बेहतरीन लेखकों की किताबों का पता बताते हैं। बताते हैं कि फलां किताब पढ़िए। उनसे पूछिए कि क्या फलां किताब पढ़कर लिखना आ जायेगा? 

भारी भरकम किताबें आपकी लेखनी में कितनी धार लायेंगी तो ये तो आप अपने अनुभव से तय कीजिए लेकिन मेरे हिसाब से लिखना, सिर्फ लिखने से आ सकता है। हां शब्दों के भंडारण के लिए कई माध्यम है उससे शब्द बटोरते रहिए मेरे नजरिए से आपके अनुभव आपको बेहतर शब्द दे सकते हैं। 


लिखना और बेहतर लिखना। 

बेहतर लिखने का पैमाना क्या है ?  ऐसा तो नहीं है कि आप लिखते नहीं है। आप विद्यार्थी हों या व्यापारी या नौकरी पेशा लिखते तो होंगे। किराने की दुकान में काम करने वाला व्यक्ति भी सामान की लिस्ट तो लिखता ही है ना। कई बार हिंदी में दुकानदार को सामान का दाम जोड़ते देखा है, होते हैं ना उससे प्रभावित कई लोग आपको मिलेंगे जो कहेंगें फलां किताब पढ़ो एक बार में समझ नहीं आयेगी दोबारा पढ़ो। ऐसा होता भी है बचपन की कई कविता और कहानियां उम्र के एक पढ़ाव के बाद समझ में आती है। मतलब अनुभव और शब्दों का ज्ञान आपको रहस्य समझने में मदद करता है और मजा तभी है जब आप लिखने वाले की भावना लिखते वक्त क्या थी यह समझ सकें। अगर आप अपने पाठकों को यह समझाने में सफल होते हैं तो आप एक शानदार लेखक हैं।  

लिखने को तो लिखने पर भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन लिखते - लिखते शब्दों की सीमा का ध्यान जरूर रखना चाहिए। अगर शब्द ज्यादा होंगे तो लोग पढ़ेंगे नहीं  क्या लिखना सिर्फ इसलिए चाहिए कि कोई पढ़े ही, अगर नहीं पढ़े तो लिखने का अर्थ ही क्या ? 

लिखते वक्त किस बात का रखें ध्यान 

लिखते वक्त ध्यान किसका रखा जाए। पाठक का जो इसे पढ़ने वाला है या आपके मन में छिपे एक लेखक का जो अपने नजरिए से अनुभव से लिख रहा है जो पाठक की बिल्कुल नहीं सोच रहा कि वो पढ़कर समझेगा भी या नहीं। इस सवाल का सीधा और सरल जवाब है, आपके लिए पाठक एक नहीं है। किसी एक व्यक्ति के स्तर को समझा जा सकता है पूरे पाठक वर्ग के समूह का आंकलन थोड़ा मुश्किल है इसलिए खुलकर अपने मन की लिखिए और कोई पढ़ेगा या नहीं इसकी जरा भी चिंता मत कीजिए। लिखने की आदत बनी रहेगी तो पढ़ने वाले भी आज नहीं तो कल कहीं ना कहीं से आपके पन्ने तक पहुंचेंगे जरूर। 

लिखना या दिखना क्या ज्यादा जरूरी है

कभी - कभी सोचता हूं क्या लिखना ही जरूरी है। आज के रील के दौर में 15 सेकेंड के एक वीडियो में मन की बात कहकर इससे निकल नहीं सकता कि मैंने तो कह दी लेकिन लिखने वालों के लिए जैसे पाठक महत्व हैं वैसे ही कहने वालों के लिए सुनना जरूरी है। कभी कहने और सुनने पर लिखूंगा तो इस पर विस्तार से बात होगी फिलहाल लिखने पर फोकस कीजिए। 

गरीबों को पीटकर क्राइम कंट्रोल कर रही है झारखंड पुलिस

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हम है, हम है झारखंड पुलिस 

ट्रेन में खचाखच भीड़ थी, इतनी भीड़ की पैर रखने की जगह नहीं, मैं दरवाजे के पास खड़ा था। दरोगा साहेब सबको दरवाजे से अंदर धकेल रहे थे, अपने डंडे को लोगों को सीने पर पेट पर लगाकर धकेल रहे थे। मेरे पास पहुंचे तो डंडा आधे में रोक लिया और इशारे से कहा अंदर चलिए, मैंने कहा जगह ही नहीं तो पास खड़े दूसरे व्यक्ति को डंडे से धकेला और बोला चलिए अंदर चलिए और आगे बढ़ गये। 

मेरे आसपास के लोग घूर रहे थे कि इसे क्यों नहीं धकेला  उनकी आंखे मुझसे ये सवाल कर रही थी कि ये हुआ क्यों, सच पूछिए तो जवाब मेरे पास भी नहीं था। मैं काफी देर तक सोचता रहा कि ऐसा क्यों हुआ। मुझे इसका जवाब मिला ट्रेन के बाथरूम में लगे शीशे से, मेरी शर्ट का रंग सफेद था। परीक्षा देने जा रहा था तो फॉर्मल सफेद रंग की शर्ट पहनी थी दरोगा साहेब जानते थे कि सभी बच्चे परीक्षा लिखने जा रहे हैं उन्हें शायद लगा हो कि डंडे से शर्ट में दाग लगने की संभावना है.. आज तक कोई दूसरी वजह मुझे तो समझ नहीं आयी। 

आप सोच रहे होंगे अचानक मुझे इस घटना की याद क्यों आयी। राजधानी में आज यही हाल देख रहा हूं। राज्य में कानून व्यवस्था की हालत खराब है। चोरी, हत्या, लूट, बलात्कार, गैंगवॉर सब हो रहा है और एक्शन हो रहा है ठेला लगाने वाले उन गरीब लोगों पर जो मुश्किल से सड़क किनारे एक छोटी सी गुमटी लगाकर परिवार का पेट पाल रहे हैं। पुलिस इन पर डंडा चलाने से पहले एक बार भी नहीं सोचती। कल एक दरोगा साहेब मिले थे कह रहे थे साहेब लोग का आदेश है कि पहले मारो फिर बात करो। कई साधारण लोगों ने पुलिस का डंडा खाया है, बगैर किसी दोष के विरोध भी नहीं करते मैंने अक्सर सुना है कौन इनके मुंह लगेगा।  

रांची के मोरहाबादी में गैंगवॉर में गोली चली तो पूरा मोरहाबादी ही उजाड़ दिया गया। शाम में कई लोग दफ्तर से काम कर यहां पहुंचते थे, गप्पे मारते थे, चाय पीते कई दुकानदारों का पेट चलता था। एक गोलीबारी ने कई घरों को एक साथ बर्बाद कर दिया। जूस की दुकान चलाने वाले एक दुकानदार ने आत्महत्या कर ली। 


कई महीनों तक दुकानदार लड़ते रहे इनकी मजबूरी का फायदा उठाने वाले कई नेता पैसे की उगाही में व्यस्त रहे पिसता रहा आम आदमी, गरीब आदमी  कई महीनों बाद जगह मिली तो फिर डंडे चलने लगे क्योंकि एक बार फिर कानून व्यवस्था को लेकर सवाल खड़ा हो रहा है। पुलिस की कार्य शैली पर , राज्य की कानून व्यस्था पर जब- जब सवाल खड़ा हुआ इन दुकानदारों की पीठ पर लाठी बरसा कर पुलिस ने जवाब देने की कोशिश की। 

रांची के मोरहाबादी मैदान में चाऊमिन की दुकान लगाने वाले एक दुकानदार को पुलिस मार रही थी। क्योंकि इसी दुकान के पास कुछ लोग शराब पी रहे थे, पुलिस को देखते ही शराबी भाग निकले इनके हत्थे चढ़ा दुकान वाला। दुकान वाला 19 साल का एक लड़का था, पुलिस ने पहले तीन चार डंडे लगाए फिर उससे कहा पैंट उतारो, लड़का किसी तरह पैंट पकड़े उसे उतरने से रोकने की कोशिश कर रहा था और पुलिस वाले डंडे चलाकर उससे पैंट उतारने के लिए कह रहे थे, हम पास खड़े थे जब रहा नहीं गया तो भागकर पहुंचे पुलिस वालों से बहस हुई बवाल बढ़ा अंत में मामला शांत हुआ दुकानदार को छोड़ा। 

आप एक व्यापारी के नजरिए से सोच कर देखिए आप एक दुकानदार है, चार शराबी दुकान पहुंचते हैं और कहते हैं चिकन चिल्ली बनाओ, आपमें हिम्मत है कि आप कह सकें कि नई बनायेंगे। जो शराब के नशे में है, बदमाश हैं वो इतने समझदार होंगे कि आपका ज्ञान सुन सकेंगे। 


जिस शहर में नाइट मार्केट का कॉन्सेप्ट कई दिनों तक चला वहां आप शाम सात बजे एक अच्छी जगह नहीं तलाश सकते जहां आप बैठकर दोस्तों के साथ चाय पी सकें। दफ्तर की सारी परेशानी साझा कर सकें। क्राइम कंट्रोल का एक मात्र उपाय लॉक डाउन तो नहीं है कि शहर ही बंद कर दो। कहीं भी बैठो पुलिस वाले आयेंगे कहेंगे चलिए यहां से कोई उनसे पूछे कहां जाएं जिन अपराधियों पर आपको नजर रखनी चाहिए रख तो नहीं पा रहे। 


कोल्हान से ग्राउंड रिपोर्ट- सड़कों पर बिछी है हर तरफ मौत, अब तक सात ग्रामीणों की मौत हो चुकी है

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कोल्हान में अगर नक्सली खत्म हो जाएं ना सर, तो दुनिया की सबसे खूबसूरत जगहों में एक होगी।  कोल्हान जंगल की पहाड़ी पर मेरे कदम ऊपर की और बढ़ रहे थे और पहाड़ के नीचे एक छोटी सी दुकान चलाने वाले महेश की यह बात मुझे बार- बार याद आ रही थी। पहाड़ की ऊंचाई से मैंने आंख भर कोल्हान के जंगल को देखा यहां की हरियाली और खूबसूरती इसके खतरनाक चेहरे को जंगल के बीच कहीं छिपा लेती है लेकिन सच क्या है ? 

कोल्हान युद्ध का मैदान 

सच तो यह है कि  कोल्हान अब युद्ध का मैदान बन गया है। जिस खूबसूरत जंगल को हमारी नजरें निहार रही हैं उसी जंगल में कई राज्यों के मोस्टवाटेंड नक्सली छिपे हैं। कोल्हान अब नक्सलियों के ईस्टर्न इंडिया का हेडक्वार्टर बन रहा है। यहां  एक करोड़ रुपए के इनामी चार नक्सली पनाह ले रहे हैं, गिरिडीह के मिसिर बेसरा उर्फ प्रधान व पतिराम मांझी उर्फ अनल, पश्चिम बंगाल का असीम मंडल उर्फ आकाश और बिहार के प्रमोद मिश्रा उर्फ वन बिहारी और उनका दस्ता इन जगलों में कहीं छिपा है। 



हम कोल्हान के  गोइलकेरा और  मुफस्सिल थाना क्षेत्र के कई गांव में पहुंचे।  नक्सलियों ने जगह - जगह पर लैंड माइंस बिछा रखा है। दूसरी तरफ सुरक्षा बल नक्सलियों पर मोर्टार से निशाना साध रहे हैं। इलाके में हो भाषा के लोग हैं तो हिंदी बोलने वाले बाहरी मान लिए जाते हैं।  दबी जुबां में सबसे पास एक कहानी है लेकिन कैमरे के सामने सब चुप हो जाते हैं । 

सात लोगों की लैंड माइंस से मौत, 18 से ज्यादा जवान हो चुके हैं घायल 

आंकड़े बताते हैं कि अबतक लैंड माइंस से सात लोगों की मौत हो चुकी कितने घायल हैं इसका अंदाजा लगा पाना मुश्किल है, गांव में कई धमाकों के शोर मुख्यालय तक पहुंचे ही नहीं। जिन इलाकों में मौत बिछी हो वहां जिंदगी चल सकती है। मौत के इन रास्तों पर हर रोज ना जाने कई गांवों में रहने वाले लोगों की जिंदगी चल रही है। कई गांव से निकले तो वापस नहीं लौट सके।


हर रोज हो रही है मौत 

नक्सली कैंप से मात्र 3 किमी दूर खड़े थे हम

कोल्हान के जंगलों में  भटकते - भटकते हम नक्सली कैंप से लगभग 3 किमी दूर ही खड़े थे। गोईलकेरा थाना क्षेत्र के ईचाहातु में जंगल के अंदर  रास्ते पर नक्सलियों ने लैंड माइंस बिछा रखा था, जिस रास्ते पर कृष्णा पूर्ति के आखिरी कदम पड़े थे हमारे कदमों के निशान उसके कदम को मिटाते हुए आगे बढ़ रहे थे।  जंगल के बीच एक घर जिसके 100 मीटर की दूरी पर ही धमाके में घर के मुखिया की मौत हुई। 

 पत्नी नद्नी पूर्ति अपने पति के पीछे थीं। उनके बायें आंख में चोट आयी वह एक आंख से अब देख नहीं पाती। जब हम उनके घर पहुंचे तो वो बाजार गयीं थी। पति के बाद चार बच्चों की जिम्मेदारी के बोझ ने उनकी आंखे जरूर छिन ली थी लेकिन कांधे को मजबूत कर दिया था। नद्नी के बेटे मधुसूदन ने हमारे लिए घर के अंदर से खाट निकाली  और बैठने का इशारा किया, इससे पहले कि हम कोई सवाल करते  गांव के एक व्यक्ति ने आंखों से इशारा किया तो उसने बताना शुरू किया, मैं घर पर ही था अचानक बहुत तेज आवाज आयी। मैं जानता था कि मेरे मां बाबा ही अभी उस तरफ गये हैं, मैं समझ गया था कि यह आईईडी बम की आवाज है।


जमीन के अंदर बिछी है मौत 




 मैं उस रास्ते पर भागा तो देखा मां की आंख में चोट आयी है खून निकल रहा है, मां ने खुद को संभालते हुए बाबा की तरफ इशारा किया तो मैं उनके पास भागकर पहुंचा तो देखा उनके दोनों पैर उड़ गये, हाथ की हथेलियां उड़ गयी थीं। मैं नीचे बैठकर अपनी गोद में उनका सिर रखकर आवाज देने लगा लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। वो मर चुके थे। 

जहां हुआ धमाका वहां खड़े थे हमारे कदम 

मैंने मधुसूदन से पूछा कि क्या तुम दिखा सकते हो ये सब कहां हुआ तो उसने बैठे - बैठी ही इशारा किया जब मैं उस तरफ बढ़ने लगा तो गांव के लोग आगे जाने से मना करने लगे, मैंने मधुसूदन से पूछा तुम कहां तक गये थे तो मधुसूदन मेरे साथ आगे बढ़ने लगा। हम उस जगह तक पहुंचे जहां धमाका हुआ था। रास्ते पर नक्सलियों ने पेड़ काटकर रखे थे हमें साफ इशारा था कि आगे रास्ता बंद है। मधुसूदन ने बताया मजबूरी में पढ़ाई छोड़ दी, अब परिवार की जिम्मेदारियां है, पिता के अंगूठे से राशन मिलता था अब वो नहीं हैं तो सब बंद है। हमें कोई मदद नहीं मिल रही, हमारी मदद कीजिए कि हम सरकारी योजनाओं का लाभ ले सकें..... 

हम जब मधुसूदन के घर से निकलकर पक्की सड़क पर  पहुंचे तो  एसपी आशुतोष शेखर से फोन पर यहां की स्थिति बताई उन्होंने फोन पर ही भरोसा दिया कि नक्सली हमले में मारे गये लोगों के परिजन को नौकरी मिलती है। हमारा पूरा ध्यान है कि इनकी मदद करें।  

जब हम एसपी से बात कर रहे थे तो  गांव के वार्ड पार्षद लखन सिंह मारला हमारे साथ थे वो कहते हैं सर  हम पुलिस और नक्सलियों के बीच फंसे हैं। हमारे गांव में अब तक दो धमाके हुए एक बार में दस आईईडी विस्फोट हुए थे। इसके कुछ दिनों बाद दूसरा धमाका हुआ। आज भी गांव के लोग जंगल नहीं जा पा रहे, गांव के लोग पलायन कर रहे हैं। गांव के आधे से अधिक लोग निकल गये हैं। कोई गुजरात तो कई जमशेदपुर जा रहे हैं।  

जीने के लिए गांव में बिछी मौत से दूर जा रहे हैं गांव के लोग

इस गांव के ज्यादातर लोग अब पलायन कर रहे हैं। जंगल से आय खत्म तो गांव में जीना मुश्किल होने लगा है।  कुइड़ा पंचायत में कुल मिलाकर सात गांव आते हैं। कुइड़ा पंचायत के मुखिया को इलाके के लोग खूब पसंद करते हैं, दूसरी बार चुनाव जीतकर मुखिया बने हैं। हम पंचायत भवन उनसे मुलाकात करने पहुंचे तो हमें कुर्सी देकर हरे रंग की प्लास्टिक बोतल लेकर बाहर चले गये थोड़ी देर बाद उसमें चापाकल से पानी भरकर लाये और हाथ बढ़ाते हुए कहा गर्मी बहुत है पानी पी लीजिए। 

डॉ दिनेश चंद्र बोयपाई ने ग्रामीणों के आईईडी चपेट में आने के सवाल पर कहा,  हमारे गांव के लोग ही सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। हमारी पंचायत के ज्यादातर गांव के लोग जंगल पर निर्भर हैं. तेंदू पत्ता, महुआ, लकड़ी लेकिन लोग जंगल नहीं जा पा रहे। घर में जलावन के लिए लकड़ी नहीं है। उज्जवला योजना है लेकिन उनके पास गैस भराने के पैसे नहीं है। यहां लोग जंगलों पर इतने आश्रित है कि जीना यहां और मरना भी यहां है। मजबूरी इतनी है कि आज भी लोग जान हथेली पर लेकर जंगल जा रहे हैं। एक तरफ नक्सली तो दूसरी तरफ सुरक्षा बल ग्रामीण मोर्टार दागे जाने की शिकायत करते हैं। 


150 से ज्यादा लैंड माइंस इस इलाके में बिछे हैं

गोईलकेरा थाना क्षेत्र से होते हुए हम दूसरे गांव का रुख कर रहे थे  ईचाहातु से इचागोड़ा जानेवाली कच्ची सड़क पर हम उस जगह पर ठहरे जहां से सुरक्षा बलों ने प्रेशर बम बरामद किया था।

कोल्हान जंगल के कई इलाकों में 150 से ज्यादा लैंड माइंस बिछे हैं, सुरक्षा बलों ने कई बरामद किया है तो कई नक्सलियों की तरफ से हर रोज लगाए जा रहे हैं। सुरक्षा बलों के लिए चुनौती यह भी है कि वह पेड़ पर बांधकर एक पाइप बम भी लगाते हैं। 


कोल्हान के कई गांवों का दौरा करने के बाद हम सीआरपीएफ 60 बटालियन कुइड़ा कैंप  पहुंचे अधिकारियों ने हमसे बातचीत करने से इनकार कर दिया कहा हमलोग इसके लिए अधिकृत नहीं है लेकिन बैठकर बातचीत में बताया कि कैसे नक्सली मेटल डिटेक्टर को चकमा देने के लिए पेड़ पर पाइप और लोहे की मदद से बम लगाते हैं। इस तरह की बम की चपेट में ज्यादा जवान आ रहे हैं।.

खूबसूरत जंगलों में बिछी है मौत 

हमने चाईबासा के मुफस्सिल थाना के थाना प्रभारी पवन चंद्र पाठक से समय मांगा उन्होंने सवालों का जवाब देते हुए कहा मेरे थाना क्षेत्र में सात ऐसे गांव हैं जो आईईडी माइंस की रडार में है। हम सीआरपीएफ के जवानों के साथ मिलकर प्रयास कर रहे हैं सड़क पर लगाई गयी आईईडी पहले निकाली जाए और सफल भी हो रहे हैं। गांव के लोगों का जीवन जंगल पर निर्भर है वह प्रभावित हो रहा है। ग्रामीण नक्सल विरोधी अभियान का विरोध क्यों कर रहे हैं। इस वाल पर थाना प्रभारी कहते हैं. उन इलाकों के ग्रामीण विरोध कर रहे हैं जहां हमारा कैंप नहीं है। जिस जगह कैंप है वहां के लोग तो सुरक्षित हैं। 

कब खत्म होगा इस इलाके में नक्सल 

अभियान कबतक सफल होगा कब यह इलाका नक्सलमुक्त होगा, इस सवाल पर उन्होंने कहा, देखिए मैं कोई समय सीमा तो नहीं दे पाऊंगा, यह कोई भी नहीं दे पायेगा। राजधानी रांची से कोल्हान का इलाका लगभग  160 किमी की दूरी पर है लेकिन इन इलाकों के धमाके का शोर रांची तक हेलीकॉप्टर की आवाज से पहुंचता है जिसमें घायल जवानों को मेडिका अस्पताल में भर्ती करने के लिए लाया जाता है।  अक्सर इन इलाकों से ग्रामीणों के मारे जाने की खबर आती है। आज ग्राउंड पर हालात देखकर यह समझना आसान हो गया कि धमाकों के आवाज के पीछे का डर कितना बड़ा है।

यूट्यूब पत्रकारिता या न्यू मीडिया, कौन गिरा रहा है पत्रकारिता की साख

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पत्रकारिता और न्यू मीडिया 

लंबे समय से यूट्यूब पत्रकारिता पर लिखना चाहता था। समझ नहीं पा रहा था शुरू कहां से करूं। मनीष कश्यप  के विवाद के बाद  से ही कई चीजें दिमाग में चल रही थी। कई सवाल भी थे कि जिन्होंने पत्रकारिता पढ़ी नहीं क्या वो पत्रकार कहे जा सकते हैं ? इस सवाल के जवाब में एक के बाद एक कई ऐसे पत्रकारों के नाम दिमाग में आये जिन्होंने पत्रकारिता नहीं की लेकिन आज इनका नाम संस्थान से कम नहीं है, कई जगह इनकी रिपोर्ट नये पत्रकारों को पढ़ाई जाती है। 

सवाल क्या यूट्यूब पत्रकारिता की वजह से साख गिर रही है ? 
इस सवाल का सीधा और सरल सा जवाब है, हां। पत्रकार की पहचान उसकी रिपोर्ट से, उसकी लिखने की शैली से और लोगों तक बात रखने की क्षमता से होती है लेकिन कुछ पत्रकारों की वजह से पूरी बिरादरी का नाम खराब होने लगता है। आप ऐसे कई पत्रकारों को जानते होंगे जिन्हें पत्रकारिता की समझ तो छोड़िए जिस विषय पर वह रिपोर्ट कर रहे हैं, वीडियो बना रहे हैं उस संबंध में उन्हें जानकारी नहीं है। कई बार इंटरव्यू के दौरान उनके सवाल या रिपोर्टिंग के दौरान आपके हावभाव से पता चलता है। क्या पूछतना है, क्यों पूछना है कितना पूछना है। सवाल कैसे पूछना है कि आपकी समझ और मुद्दे की जानकारी भी इस सवाल में हो ताकि जवाब देने वाला आपके सवाल को गंभीरता से ले.  यह सब सवाल पूछने से पहले समझ लेना जरूरी है । यही समझ आपको विकसित करती है आपकी पहचान स्थापित करती है। 

इसकी दूसरी वजह है, नेता, अधिकारी, ग्राउंड रिपोर्टिंग के दौरान लोग अगर आपसे पहली बार मिल रहे हैं तो वह आपको उन यूट्यूब पत्रकारों की सूची में रखते हैं जिनसे वो रोज मिलते हैं। आपसे बातचीत के बाद आप अपनी छाप उन पर छोडने में सफल या असफल होते हैं लेकिन वो देखते आपको उसी नजरिए से हैं। 

हर खबर जरूरी नहीं होती 

यूट्यूब पत्रकारिता में सबसे बड़ा संकट है व्यू का। पूरा खेल इसी का है। हर वीडियो को सनसनीखेज बनाकर पेश करना पड़ता है ताकि यह ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे। जितने व्यू उतने पैसे। साधारण सी जानकारी भी इस ढंग से पहुंचाई जाती है कि आप उस पर क्लिक करने को मजबूर हो जाएं। छोटी खबर भी इतने सनसनीखेज तरीके से पेश की जाती है कि वह क्लिक होगी हीं। माइक लेकर कहीं भी घूस जाने की ताकत तो यूट्यूब पत्रकारिता दे ही रही है। बिहार में ऐसे कई चैनल है। एक मनीष कश्यप ने ऐसे कई मनीष कश्यप खड़े कर दिए हैं जो सवाल को सवाल की तरह नहीं जेल में होने वाली सख्त पूछताछ की तरह करते हैं। यही वजह है कि इस यूट्यूब पत्रकारिता में साख औऱ भरोसे का संकट है। इस यूट्यूब पत्रकारिता के फायदे और नुकसान दोनों हैं। इसके फायदे पर ध्यान देंगे तो कई लोग इस तरह की पत्रकारिता करके लाखों कमाते हैं। बड़ी गाड़ी खरीद लेते हैं अपने चैनल पर यह सब दिखाते भी हैं तो लोगों को इससे ताकत मिलती है कि अऱे ये तो हम भी कर लेंगे। 


न्यू मीडिया के लिए संकट 

आप कहेंगे कि न्यू मीडिया यही तो कर रहा है, आपका कहना भी सही है न्यू मीडिया में व्यू, पेज व्यू का खेल है। नयी पत्रकारिता इसी पर टिकी भी है लेकिन अगर आप किसी बड़े संस्थान से जुड़े हैं तो उस संस्थान के साथ जुड़ा है पाठकों का, दर्शकों का विश्वास उससे बढ़कर कुछ नहीं है। अगर यह विश्वास टूटा तो उनके लिए टिकना मुश्किल हो जायेगा क्योंकि वो न्यू मीडिया के साथ- साथ अखबार भी छाप रहे हैं। जो भरोसे को आगे रखते हैं, उनकी खबर पढ़कर आप पहले भरोसा करते हैं और जो यूट्यूबर पत्रकार हैं जो हर बार एक नयी गलती करते हैं उन पर पहले शक करते हैं। बड़े संस्थान या भरोसे के साथ काम करने वाले न्यू मीडिया के लोग आपके भरोसे को पूंजी समझते हैं औऱ यूट्यूब पर पत्रकारिता करने वाले आपसे बस एक क्लिक की उम्मीद रखते हैं। 

तो क्या करें 

क्या करें का सवाल दोनों तरफ से है जो पत्रकार बनना चाहते हैं वो इसकी पढ़ाई करें, किसी अच्छे अखबार में कुछ दिन नौकरी करें, भाषा पर पकड़ मजबूत करें, खबर लिखने की शैली, मुद्दों की समझ या कुल मिलाकर पहले खबर की समझ स्थापित कीजिए फिर कीजिए न्यू मीडिया में काम आपसे गलती होने की संभावना कम होगी। दूसरा क्या करें का सवाल दर्शकों का है, आप न्यू मीडिया की पत्रकारिता और यूट्यूब पर पत्रकारिता में फर्क करिए। मनोरंजन के लिए देखना है तो देखिए लेकिन इन्हें गंभीरता से मत लीजिए। अखबार पढ़ने की आदत बंद मत कीजिए। मोबाइल पर खबरें पढ़िए लेकिन एक बार दिन भर में अखबार पढ़ने की आदत बनाए रखिए क्योंकि अखबार में जो लिखा गया है वो दोबारा एडिट नहीं किया सकता। 

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