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पत्रकारिता एक करियर के रूप में कितना मजबूत है ?

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is journalism a good career

पत्रकारिता अब एक बेहतरीन करियर विकल्प के तौर पर देखा जाता है। कुछ लोग तो इस विकल्प को इतना मजबूत मानते हैं कि लाखों की फीस देकर इस पेशे में आना चाहते हैं और आ भी रहे हैं ।  ऐसे विद्यार्थी कई बार टकराते हैं, कई सपने बड़ा करने की चाह और बहुत कुछ बदल लेने की ललक नजर आती है। पत्रकारिता असल में है क्या, आप जो देखते हैं जिनता समझते हैं उससे कहीं ज्यादा कुछ है औऱ कई मामलों में काफी कम है। पत्रकारिता की इसी समझ को आप औऱ बेहतर समझ सकें यह कोशिश की। इस बातचीत में हमने पत्रकारिता से जुड़े हर सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश की। 

पत्रकारिता में सर या भैया ?

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journalism ethics relation and career growth

हम छोटे शहर के लोगों में एक कमी होती है, जो हमें आज के प्रतिस्पर्धा वाली दौड़ में खींच कर नीचे ले आती है। वह कमी है लगाव...


हम रिश्ते इतने दिल से बना लेते हैं कि शोले फिल्म के उस डॉयलॉग को भी भूल जाते हैं, जिसमें बसंती कहती है, घोड़ा घास से दोस्ती कर लेता, तो खायेगा क्या ? छोटे शहर में बैठे हम जैसे घोड़ों की दोस्ती अगर घास से हो गयी, तो भूखे मर जायेंगे लेकिन घास खायेंगे नहीं। 

यही लगाव हमें आज की दौड़ में जीतने नहीं देती। छोटे शहरों की पत्रकारिता में एक चलन है, अपने से वरिष्ठ साथियों को भैया कहकर संबोधित करना। जब यह संबोधन व्यवसायिक नहीं है, तो फिर रिश्ते भी कैसे व्यवसायिक रहेंगे। जिन वरिष्ठों को भैया कहकर संबोधित करते हैं वो बड़े भाई की तरह व्यवहार भी करते हैं। हमने भी यही सीखा। जुनियर ने भी जब भैया कहकर संबोधित किया, तो उसे भी छोटा भाई मान बैठे। इसी तरह रिश्ते बनते गये..

छोटे शहरों में लगाव सिर्फ लोगों से  नहीं होता कंपनी से भी हो जाता है क्योंकि संस्थान सिर्फ बिल्डिंग नहीं है, उसमें काम करने वाले लोग हैं। बाहर किसी ने आपके संस्थान पर कोई टिप्पणी कर दी, तो लगता है जैसे अपने घर पर कर दी है। 

बचाव भी उसी  रिश्ते  के आधार पर होता है। लंबे समय से किसी एक संस्थान में काम करने के अपने फायदे और नुकसान है। इसमें दो तरह की संभावनाएं हैं, आप उस संस्थान के काम करने के तरीके को इतनी अच्छी तरह समझते हैं कि काम में कोई परेशानी ही नहीं होती। आपसी संबंध भी इतने मजबूत हो जाते हैं कि आपको कई अवसर मिलते हैं, संस्थान के वरिष्ठ आपके काम के तरीके को समझते हैं। 

जिन्हें आप भैया कहकर संबोधित करते हैं और जिस रिश्ते की डोर पकड़े आप ढलान पर खड़े हैं। उस डोर का सिरा भी कहीं बंधा होता है। वो बड़ा भाई भी जिसे संस्थान के ऊपर बैठे लोगों को काम का हिसाब देना पड़ता है क्योंकि भैया वाला रिश्ता सिर्फ पत्रकारिता तक है, मैनेजमेंट के स्तर पर नहीं। बहुत कम लोग समझ पाते हैं कॉरपोरेट और पत्रकारिता के बीच के इस फर्क को।

आप अपने काम और दफ्तर की जिम्मेदारियों  को निजी रिश्तों के थैले में लेकर चलते हैं जबकि होती वह विशुद्ध कॉरपोरेट हैं। खैर  इन सब के बीच आप अपनी बढ़त, परिवार की जिम्मेदारियों को धीरे- धीरे नजरअंदाज करने लगते हैं। 

भूलने लगते हैं कि इस ऑफिस के परिवार के इतर भी एक परिवार है, जो दफ्तर के रिश्तों से नहीं आपकी कमाई के पैसों से अपना पेट भरता है। आप घास से दोस्ती करके भूखे रह लीजिए लेकिन उसी घास से आपके परिवार वालों का पेट भरना है, तो उन्हें कैसे रोकेगें आप ? 

ये ठीक उसी तरह है, जैसे मेंढक पानी में बढ़ते तापमान के साथ अपने शरीर को तैयार करता है लेकिन जब पानी ज्यादा गर्म हो जाता है, तो उसमें इतनी क्षमता नहीं रहती कि वो पानी से बाहर निकल सके और मर जाता है। इसी लगाव और रिश्तों की वजह से आप संस्थान नहीं बदलते और आपकी हालत इसी मेंढक की तरह हो जाती है। छोटे शहरों में बेहद कम संस्थान हैं, जो समय के साथ आपकी काम के आधार पर आपको तरक्की देते हैं। कंपनियां हर साल अपने कर्मचारियों का वेतना बढ़ाती हैं लेकिन इसमें भी तमाम तरह के फार्मूले काम करते हैं, जो कई बार सिर्फ आपके काम और मेहनत के आधार पर तय नहीं किये जाते। कई बार यह रिश्ता किसी किसी के काम भी आ जाता है ,तो कई बार यही रिश्ता आपको इमोशनल ब्लैकमेल करके उसी ढलान पर छोड़ देता है। 

बेहतर इंसान वही है, जो आज के इस दौर में अपने करियर, अपनी मेहनत पर भरोसा करते हुए आगे बढ़ता है। संघर्ष चुनौतियां जीवन का हिस्सा हैं और अगर वो आपके काम में नहीं है, तो आप स्थिर हो रहे हैं और जीवन ठहराव का नाम नहीं है जीवन बहते पानी की तरह निर्मल और साफ होना चाहिए नहीं, तो पानी के जमने से जीवन में कई बीमारियों का खतरा है।  उम्मीद है आपमें से कई लोग जो इस पेशे में हैं अपने अनुभव से भी इसका आंकलन करेंगे। 


पत्रकारिता में भ्रम और सत्य, किसे कहते हैं स्टार पत्रकार ?

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पत्रकारिता में भ्रम और सत्य 

पत्रकारिता के पेशे में भ्रम और सत्य दोनों का साथ मिलता है। भ्रम  कई बार सच साबित होते हैं, तो कभी - कभी सच का भी भ्रम होता है। पत्रकारिता आपको एक चीज सबसे ज्यादा देती है पहचान...। आपकी पहचान आपके पेशे की वजह से है। अपने नाम से पत्रकार की पहचान निकाल कर देखिए जरा, आपकी कितनी पहचान बची रहती है। इस पहचान के कई मायने हैं, इसे पत्रकारों को समझना चाहिए खासकर नये पत्रकारों को क्योंकि पुराने अब इस भ्रम को सच मानने लगे हैं। नेता ने कांधे पर हाथ रख दिया, तो सीना फूला लिया, मुख्यमंत्री के साथ सेल्फी शेयर कर ली, तो सरकार बचाने और गिराने का दंभ भरने लगे। ये सब आप आजकल ज्यादातर पत्रकारों में देखेंगे।

नये युवा पत्रकार पत्रकारिता कर के कम फैन बनकर ज्यादा मिलते हैं, भैया आपका काम देखते हैं आपके जैसा बनना है। फलां भैया भी हमको पसंद हैं। नये पत्रकारो को मैंने हमेशा कहा है किसी के जैसा नहीं अपने जैसा बनो। पुराने पत्रकारों से ये कहना चाहता हूं कि कृपया ये  भ्रम मत पालिए कि आप नहीं होते, तो कुछ नहीं होता। किसी गरीब के साथ सेल्फी शेयर करके ये मत जताइये कि आपने इनके लिए क्या कर दिया। आपको इस पेशे ने इसी वजह से पहचान दी है कि आप काम आ सकें बल्कि इसलिए नहीं कि अपनी पहचान को चमकाने के लिए आप गरीबों को सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल करें। इन सीढ़ियों पर चढ़कर कहां जायेंगे आप आपने कितनी ऊंचाई तय करने की ठान ली है। 

पत्रकार या मैनेजेर 

पुराने वाले पत्रकारों से बात थोड़ी लंबी चलेगी, तो नये पत्रकार इतमिनान से समझें क्योंकि इसमें उनके लिए भी संदेश है कि किससे बचना चाहिए। पत्रकारों  में सबसे ज्यादा लड़ाई जानते हो दोस्त किसका है ? लड़ाई है खबर के असर का, सबसे पहले हमने ब्रेक किया, हमारी खबर का असर हुआ, हमारे वीडियो पर एक्शन हुआ। पुराने पत्रकारों में पत्रकारिता इतनी सिमट गयी है कि ट्वीट के या फेसबुक पोस्ट के असर तक सिमट आयी है। अब तो कई मामले ऐसे भी आते हैं कि पत्रकार साहेब खुद किसी नेता का सोशल मीडिया संभालते हैं, खुद अपने ट्वीट को नेता के अकाउंट से रिट्वीट कर देते हैं। बस हो गया असर, कमाल है ना. ये पत्रकार भी कहलाते हैं। असल में ये मैनेजेर हैं, जो इवेंट मैनेज करना जानते हैं, ये समझते हैं कि कौन सी खबर पर कैसे वाहवाही लेनी है। 

गरीबों के साथ सेल्फी में अपनी किस्मत चमकाने की कोशिश

कई पुराने और वरिष्ठ साथियों को देखता हूं कि उन्हें लगता है वो नहीं होते तो इस राज्य के गरीब, दुखियारों का क्या होता ? खुद को इतना बड़ा मानने लगते हैं कि पत्रकार कम फिल्म स्टार ज्यादा होने लगते हैं, फैन फॉलविंग, स्टारडम, सेल्फी सबका आनंद लेते हैं लेना भी चाहिए. बड़े पत्रकारों के साथ ये होता है लेकिन वही बड़े पत्रकार ये बताते हुए वीडियो नहीं बनाते, ये नहीं बताते कि देख रहा है ना विनोद... ।  यहां सिर्फ विनोद ही नहीं देख रहा, विनोद के साथ- साथ हम जैसे कई लोग हैं जो इसे समझते हैं। 

नये पत्रकारों से अपील 

पुराने वालों को बोल के फायदा तो है नहीं, कहेंगे अच्छा... जुनियर होके हमको समझा रिया है. तो नये पत्रकार भाई लोग जो हमने जुनियर हैं उन्हें समझाने का तो अधिकार है ना तो सुनो दोस्त... पत्रकारिता ना कमाल का पेशा है. अब पेशा ही पहले पैशन था, इसमें तुम्हें कई तरह के लोग मिलेंगे. वैसे लोग भी जो अहसास करेंगे तुम सबसे कमाल के हो, ऐसे भी जो कहेंगे ना बोलना आता है, ना लिखना । ऐसे लोग भी जो तुम अच्छा करोगे तो कांधे पर हाथ रखकर शाबाशी देंगे, ऐसे लोग भी जो दोनों पैर पकड़कर इस डर से खींच लेंगे कि तुम कहीं उनसे आगे ना निकल जाओ। 

तुम ना किसी की शाबाशी से खुद में घमंड ले आना ना किसी के रोकने से डर जाना। खुद में विश्वास करना, अपनी मेहनत पर भरोसा रखना और अपनी औकात हमेशा नापकर रखना। जमीन पर रहोगे तो ना उड़ने में डर लगेगा ना गिरकर टूट जाने का भय। सच्चाई और भ्रम में फर्क समझना, अपन से जुनियर को कभी मत महसूस होने देना कि तुम इतने बड़े हो गये हो कि तुम तक पहुंचना मुश्किल है।

इस लेख को पढ़ते हुए दिमाग में कई पत्रकारों की छवि उभरेगी। रविश कुमार, पुण्य प्रसून वाजपेयी से लेते हुए झारखंड बिहार के कई ऐसे वरिष्ठ पत्रकार जिनसे हम सभी ने कुछ ना कुछ सीखा है। इस सीखने की प्रक्रिया में ये जरूरी नहीं कि उन्होंने हमें हाथ पकड़कर सिखाया हो। हमने उनकी रिपोर्टिंग, खबरों को पेश करने के तरीके और उनके संघर्ष के सफर से सीखा है। इस यात्रा में उनसे प्रभावित होने के साथ- साथ ये जरूरी नहीं कि हमारा सफर भी वैसा ही हो। हमें उनकी खूबियों से ही नहीं कमियों से भी सीखना है। कई बार हमें पता होता है कि उन्हें क्या नहीं चाहिए था। 

1932 आधारित स्थानीय नीति और ओबीसी आरक्षण का फैसला : कहां - कहां फसेगा पेंच ?

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मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन 

1932 के आधार पर स्थानीय नीति लागू कर दी गयी. ओबीसी आरक्षण पर भी फैसला ले लिया गया. क्या झारखंड अब अपनी रफ्तार पकड़ सकेगा ? क्या सच में झारखंडियों को अपना अधिकार मिल गया ? सारे विरोध, सारे आंदोलन इस फैसले के बाद खत्म हो जायेंगे या यह फैसला एक बार फिर कोर्ट की दहलीज पर राज्य के विकास की रफ्तार को रोक देगा . 

आज झारखंड कैबिनेट ने कुल  41 प्रस्तावों को मंजूरी दी लेकिन खबर इन दो बड़े फैसलों को लेकर है. कैबिनेट के प्रस्ताव के बाद अब आगे क्या होगा ? आरक्षण को कैबिनेट की मंजूरी  मिली है लेकिन क्या राह होगी आसान ?1932 खतियान आधारित नीति में कौन- कौन सी समस्या आ सकती है ?

नारेबाजी, पटाखे, आभार यात्रा और मुख्यमंत्री को धन्यवाद देने के बाद इन सवालों के जवाबों की तलाश होगी. आइये हम कोशिश करते हैं इसे समय से पहले समझ सकें. 

आखिर स्थानीय कौन ? 

झारखंड के 21 सालों के इतिहास में सबसे बड़ा सवाल है आखिर स्थानीय है कौन ? जो भी सरकार आयी उसने अपने आधार पर बताया कि स्थानीय कौन है ? अब एक बार फिर स्थानीय होने की परिभाषा गढ़ी गयी है. इस परिभाषा की उम्र कितनी होगी, परेशानियां क्या - क्या आयेंगी. इस सवाल के जवाब के लिए शुरू से शुरू करने की जरूरत नहीं है. सबसे ताजा खबर पढ़िये समस्यां समझ आयेंगी और हल ?  कोर्ट तलाश रही है. 


 लोबिन हेंब्रम 

नियोजन नीति और नौकरियां 

सुप्रीम कोर्ट ने  साल 2016 में  राज्य सरकार की नियोजन नीति को असंवैधानिक करार  दिया है, लेकिन इस नीति से अनुसूचित जिलों में नियुक्त शिक्षकों की नियुक्ति को सुरक्षित कर दिया.  कहा कि आदिवासी बाहुल क्षेत्रों में शिक्षकों की कमी है.  शिक्षकों को हटाने का आदेश देते हैं, तो इससे वहां के छात्रों का नुकसान होगा.  इसलिए जनहित को देखते हुए उनकी नियुक्ति को बरकरार रखी जाती है. नियोजन नीति को झारखंड हाई कोर्ट के तीन जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से सरकार की नियोजन नीति को असंवैधानिक करार दिया था. कोर्ट ने कहा था कि इस नीति से एक जिले के सभी पद किसी खास लोगों के लिए आरक्षित हो जा रहे हैं जबकि शत-प्रतिशत आरक्षण नहीं दिया जा सकता.

कहां फसेगा ओबीसी आरक्षण का मामला ? 

आरक्षण को सिर्फ ओबीसी के आरक्षण के मामले से मत समझिये आपको साल 2019 में  लोकसभा चुनाव से ठीक पहले आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य श्रेणी के लोगों के 10 फीसदी आरक्षण के पूरे विवाद पर भी नजर रखनी होगी.  संसद के दोनों सदनों से इस संबंध में संविधान संशोधन विधेयक पारित होने के बाद राष्ट्रपति ने भी इस पर मुहर लगा दी.  साल 2019 में एनजीओ समेत 30 से अधिक याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंच गये अब संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन किए जाने को चुनौती दी गई है. मामला अब भी चल रहा है. 

राज्य दे रहा है  कुल 77 प्रतिशत आरक्षण

अब आइये झारखंड में आरक्षण की स्थिति पर 1932 के खतियान के अलावा ओबीसी को झारखंड में 27 परसेंट आरक्षण देने के फैसले पर भी मुहर लगी तो  एससी को 12 प्रतिशत, एसटी को 28 प्रतिशत, अत्यंत पिछड़ा वर्ग को 15 प्रतिशत, पिछड़ा वर्ग को 12 प्रतिशत और आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग के लिए 10 प्रतिशत यानी कुल 77 प्रतिशत आरक्षण.  सामान्य वर्ग के लिए 23 फीसदी सीटें बची हैं.

क्या कहता है कोर्ट 

मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) आरक्षण का मामला चल रहा है.इसमें कहा गया किसी भी सूरत में आरक्षण का कुल प्रतिशत 50 से अधिक नहीं होना चाहिए. ना सिर्फ हाई कोर्ट बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने भी 1963-64 में एमआर बालाजी के मामले में  कहा था कि कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से कम होना चाहिए.  इसके बाद 1992 में इंदिरा साहनी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी भी परिस्थिति में कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए . इसके बाद 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने मराठा आरक्षण में सभी बिंदुओं पर विचार करने के बाद फैसला दिया था और आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय की थी. मतलब इस मामले में विवाद अब भी चल रहा है इसलिए राह इतनी भी आसान नहीं होगी. मामला कोर्ट में जायेगा और आप अच्छी तरह समझते हैं कि कोर्ट के मामलों में सरकार की स्थिति क्या होती है हालांकि इस पूरे तर्क में तमिलनाडु में 68 फीसदी आरक्षण लागू है इसे जोड़ा जा सकता है. 

नियोजन नीति और बेरोजगार युवा 

स्थानीय नीति और नियोजन नीति की लेट लतीफी का  असर झारखंड के युवाओं पर पड़ा है. कई नौकरियों की परीक्षा पास करने के बाद भी युवा नेताओं के दरवाजे पर हाथ जोड़े खड़े हैं. नियोजन नीति को लेकर विवाद हुआ.  साल 2016 में नियोजन नीति बनी  विवादों में घिर गयी. 13 अनुसूचित जिला और 11 गैर अनुसूचित जिला के लिए अलग-अलग नीतियां बनायीं गयीं, जिसकी वजह से मामला फंस गया. 

बेरोजगार युवा और स्थानीय नीति 

28 तरह की नौकरियां अधर में लटक गई हैं और इस क्रम में 10 लाख से अधिक आवेदनकर्ताओं का भाग्य भी नीतियों पर टिका है.  राज्य के सभी सरकारी विभागों में स्वीकृत नियमित पदों में से 3.50 लाख पद खाली हैं. इनमें सबसे ज्यादा पद शिक्षा विभाग में खाली है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षकों सहित अन्य कर्मचारियों के खाली पड़े पद सरकार के कुल खाली पदों का 60.97 प्रतिशत है. 


अब 1932 आधारित स्थानीय नीति पर आइये 

आरक्षण का मामला समझ गये तो अब 1932 के खतियान आधारित स्थानीय नीति पर चर्चा कर लेते हैं.  खतियान की बात करें, तो इसकी तीन प्रतियां बनती है. एक जिला उपायुक्त के पास रहता है. एक अंचल के पास और एक रैयत के पास.  डीसी के अधीन रहने वाला खतियान अभिलेखागार में रहता है, वहीं अंचल के पास रहने वाला खतियान वहां के कर्मचारी के पास रहता है. आंकड़े अब कहां कितने सुरक्षित है इसे लेकर लंबे समय से सवाल खड़े हो रहे हैं. 

1932 के खतियान को आधार बनाने का सीधा अर्थ है कि उस समय के लोगों का नाम ही खतियान में होगा यानि 1932 के वंशज ही झारखंड के असल निवासी माने जायेंगे. 1932 के सर्वे में जिसका नाम खतियान में चढ़ा हुआ है, उसके नाम का ही खतियान आज भी है. रैयतों के पास जमीन के सारे कागजात हैं, लेकिन खतियान दूसरे का ही रह जाता है.

खतियान में सुधार में कई बाधाएं है. 1910, 1915 या 1935 में सर्वे सेटलमेंट के बाद तैयार अधिकर खतियान कैथी, बांग्ला या अंग्रेजी में ही है. बिहार के समय किए गए हिन्दी अनुवाद में भी काफी गलतियां हैं. इतना ही नहीं आर्काइव्स में रखे गये खतियान के कई पन्ने गायब हैं. इससे न तो खतियान का पूर्ण डिजिटलाइजेशन हो पा रहा और ना ही गलतियों का सुधार. 

राज्य में स्थानीय नीति तय हुई  साल 2002 में तत्कालीन बीजेपी मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने जब राज्य की स्थानीयता को लेकर डोमिसाइल नीति लाई. कई जगहों पर झड़प हुई.  झारखंड हाईकोर्ट ने इसे अमान्य घोषित करते हुए रद्द कर दिया.  2005 से 2014 तक बीजेपी के अलावा, जेएमएम-कांग्रेस-आरजेडी की भी सरकार रही, लेकिन स्थानीय नीति पर कोई फैसला नहीं हुआ. साल 2014 में रघुवर दास के नेतृत्व में बीजेपी की  सरकार बनी, तो रघुवर सरकार ने 2018 में राज्य की स्थानीयता कि नीति घोषित कर दी. 1985 के समय से राज्य में रहने वाले सभी लोग स्थानीय, तय हो गया. 

मामला अब  भले सुलझता दिख रहा हो लेकिन कैबिनेट के फैसले के बावजूद इसे लागू होने की राह इतनी आसान नहीं है.

इस पूरे विवाद के इतर झारखंड के साथ अलग हुए राज्य छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड की तरफ देखना चाहिए इन राज्यों ने समय रहते इस बड़े सवाल का जवाब तलाश कर लिया. कहा, 15 साल तक राज्य में निवास करने वालों को स्थानीयता के दायरे में रखा जाएगा. दोनों राज्य के विकास की तुलना झारखंड से की जा सकती है. झारखंड  जिसने अबतक अपने यहां के निवासियों का आधार  क्या होगा, तय नहीं कर सका भविष्य और विकास की रणनीति तय करने में कितना वक्त लेगा, आप अंदाजा लगा सकते हैं.  झारखंड से दूसरे शहर रोजगार की तलाश में जाने वालों की संख्या इस राज्य के असल संकट की तरफ इशारा करती है. 

भारत के इस शहर में डॉक्टर और सफाईकर्मचारी की सैलरी बराबर है

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ऑरोविल एक ऐसा शहर जहां ना सरकार है, ना कोई कानून. यहां कोई अपराध भी नहीं होता. इस जगह शांति की खोज में दुनिया भर से लोग आते हैं. इस जगह को धरती का स्वर्ग कहा जाता है. दुनियाभर के दूसरे शहरों से अलग इस शहर में बहुत कुछ अलग है. 

कहां है ये जगह 

पॉडीचेरी से महज दस किमी दूर ये शहर दुनिया भर में अपनी अलग पहचान रखता है. यह जगह धर्म और राजनीति की खींच तान से दूर एक अलग ही दुनिया है.  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस जगह का दौरा किया था.  पीएम मोदी ने इस जगह को लेकर कहा, "ऑरोविल में, भौतिक और आध्यात्मिक, सद्भाव में सह-अस्तित्व में हैं"

पूरी दुनिया में इस वक्त धर्म, जाति, राजनीति और देश की दीवार है. मानवता के हित में सोचने वाले ना लोग हैं ना कोई देश लेकिन भारत में एक ऐसा शहर बसता है जो इस दिशा में सोच रहा है और आज से नहीं कई सालों से यहां के नागरिक मानवता और समाज की वर्तमान परिभाषाओं से कहीं ऊपर हैं. यह शहर किसी सीमाओं में नहीं बटा किसी भी देश का नागरिक यहां रह सकता है. यहां ना धर्म की दीवार है ना जात का बंधन  यहां आज तक एक भी अपराध नहीं हुआ.

कैसे तैयार हुआ यह शहर 

इस अनोखे शहर के तैयार होने की भी कहानी है.  आपको पीछे चलना होगा 1960 के दशक की कहानी है. जब भारत के महान स्वतंत्रता सैनानी और दार्शनिक ऑरबिंदो घोष और फ्रेंच महिला मैरिसा अल्फ़ाज़ा ने एक ऐसे समाज की कल्पना की जहां  धर्म या जाति के आधार पर भेदभाव न हो, जहां कोई कानूनी बाध्यता न हो और जहां पूरे विश्व के लोग शांति, सद्भाव और पारस्परिक सहयोग से रह सके. इस कल्पना को रूप देने के लिए  चयन हुआ इस जगह का. 'ऑरोविल' शहर का निर्माण हुआ, जहां 60 देशों के लगभग 3 हज़ार लोग रहते हैं.  ऑरोविल दक्षिण भारत में स्थित है, पॉन्डीचेरी से इसकी दूरी महज़ 10 किलोमीटर है.

डॉक्टर हो या सफाई कर्मचारी सभी को मिलती है एक जैसी सैलरी 

यह शहर आम शहर की तरह ही लगता है लेकिन यहां की हवा में ही कुछ अलग है. विदेशी आपको यहां खेतों में काम करते साइकिल चलाते और दुकानों में काम करते बड़े आराम से दिख जाते हैं. यहां सभी के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाता है.  स्वीपर से लेकर डॉक्टर, इंजीनियर तक सभी को एक जैसी तनख्वाह (12 हज़ार रुपए प्रतिमाह) दी जाती है. 

यहां के लोग समाज के लिए काम करने में विश्वास रखते हैं, लेकिन वही काम करते हैं, जिसमें उनकी रूचि हो. ऑरोविल में कुल 10 स्कूल है, जिनमें हर उम्र के लोग पढ़ाई कर सकते हैं.यहां के स्कूलों की खासियत है कि यहां कोई निर्धारित पाठ्यक्रम नहीं होता, विद्यार्थी अपनी रचनात्मकता के अनुसार कुछ भी सीख सकते है. 

ना कोई जाति ना कोई धर्म की दीवार 

'मातरी मंदिर', जिसे  बनाने में  37 वर्षों का समय लगा. यहां घूमना इस जगह को देखना सब निशुल्क थक गये तो बस सेवा भी निशुल्क. मातृ मंदिर में ना कोई प्रतिमा है ना प्रार्थना की कोई पद्धति यहां ध्यान के माध्यम से केवल एक चीज़ को पूजा जाता है और वो है मन की शांति. 

 वैसे तो ऑरोविल भारत का ही एक हिस्सा है, लेकिन यहां का बजट यहां रहने वाले लोगों द्वारा ही बनाया जाता है, जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ और संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) द्वारा आर्थिक सहयोग प्रदान किया जाता है.

दुनिया भर के खाने का स्वाद ले सकते हैं. 

शहर में आपको ढेरों कैफ़े और रेस्टोरेंट मिलेंगे दुनिया भर के कई व्यंजन आप यहां आसानी से चख सकते हैं.  आस-पास के गांव के लोगों को भी यहां काम मिलता है.  ऑरोविल से ढेरों स्टार्ट-अप्स की शुरुआत हुई है, जो आज लाखों कमा रहे हैं. 

दुनिया भर के कई देश जहां आर्थिक विकास की अंधी दौड़ में बेहिसाब भाग रहे हैं वहीं ऑरोविल जैसा शहर दुनिया में शोर-शराबे से दूर मानव जाति को एक गंभीर संदेश दे रहा है. मैंने इस जगह जो महसूस किया शायद आप भी कर सकेंगे यहां के पेड़ पौधे, हरियाली और लोगों के स्वभाव में ही कुछ ऐसी बात है जो दुनिया के किसी भी दूसरे कोने से अलग है.  ऑरोविल को दुनिया की पहली 'एक्सपेरिमेंटल सोसाइटी' मानी जाती है  ये एक अनुसंधान केंद्र भी है, जहां मानव विकास के कई आयामों पर निरंतर शोध कार्य किया जा रहा हैॉ


विधानसभा में धरना, नेताओं के सामने जमीन पर बैठना- क्या यही पत्रकारिता है ?

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झारखंड विधानसभा में पत्रकारों के धरना पर बैठने की खबर पहले मेरे दफ्तर पहुंची. फिर मेरे दफ्तर के साथियों से मुझतक. मैं उस दिन विधानसभा में था जैसे ही सत्र खत्म हुआ दफ्तर वापस लौट चुका था. जबतक दफ्तर पहुंचा खबर पहले से मेरा इंतजार कर रही थी और एक के बाद एक कई सवाल साथियों ने पूछ लिये, कुछ देर बाद मोबाइल पर कुछ वीडियो क्लिप और अंत में एक पोस्ट के माध्यम से मामले को समझने की कोशिश की.

पत्रकारों के धरना का वीडियो भी इस लिंक पर आपको मिल जायेगा, अगर देखना चाहें तो

साफ है कि ग्राउंड पर इस तरह की घटना इकलौती नहीं है. पहले भी हुई है, अब भी हुई और आगे भी होगी. कई बार पत्रकार आपस में टकरा जाते हैं, तो कभी धक्का मुक्की में सुरक्षा कर्मियों से. ये काम का हिस्सा है, हमारा भी और उनका भी. हां ये जरूर है कि इस तरह के कड़वे अनुभव पत्रकारिता के सफर में याद रह जाते हैं. मेरे भी हैं और आज भी जेहन में ताजा हैं. 



झारखंड में सिर्फ राज्य के राजनीतिक हालात को लेकेर चर्चा नहीं चल रही है बात पत्रकारिता की भी है. आप कई फेसबुक पोस्ट पर कई तरह के सवाल देखेंगे और जवाब नदारद हैं, पिछले कई दिनों से हम पत्रकारों के लिए मुख्यमंत्री आवास ही दफ्तर बना था. मुख्यमंत्री आवास के अंदर भी और बाहर भी पेड़ की छांव ही हमारे लिए राहत वाली जगह थी. कभी आवास के अंदर, तो कभी गेट के बाहर हमारी निगाहें हर वक्त मुख्यमंत्री आवास में हलचल ढूढ़ रही थी . सोशल मीडिया पर अपने ही पत्रकार साथियों के पोस्ट देख रहा था जिसमें एक प्रेस कॉन्फेंस की तस्वीर वायरल थी. तस्वीर में चर्चा पत्रकार और पत्रकारिता पर थी. इन सभी घटनाओं को देखते हुए मेरे मन में भी कई सवाल उठे और जवाब भी मिले.  (इससे पहले की आप प्रतिक्रिया दें आग्रह है कि इसे पूरा पढ़ लें)

क्या यही असल पत्रकारिता  है ?

राज्य की सरकार गिरना यह छोटी खबर तो नहीं है. इससे जुड़ी खबरों के लिए मेहनत करना ही, तो पत्रकारिता है. इस बड़ी खबर के लिए कुर्सी मिले ना मिले कहां मायने रखता है, वैसे भी जिनकी कुर्सी खुद खतरे में हो वो... खैर  

राज्य में इससे बड़ी और क्या खबर हो सकती है कि राज्य का भविष्य क्या है, पता नहीं. पत्रकार मुख्यमंत्री आवास की तरफ देख रहे हैं, मुख्यमंत्री राजभवन की तरफ. सूत्र अलग- अलग तरह की जानकारियां दे रहे हैं कुछ खबर बन रही है, तो कुछ चर्चाओं में दबी रह जा रही है. कौन हनुमान, कौन विभिषण ?  बाकि जिनके विदेशों से कपड़े आते हों लेकिन साहेब दिल्ली से अंडरगारमेंट्स खरीदते हैं यह सबसे बड़ी खबर है.

पत्रकारिता की जिम्मेदारी किसके कांधे पर है ? 

सोशल मीडिया से लेकर हम पत्रकारों के बीच हो रही चर्चाओं में इसे लेकर चिंता, तो जरूर है. कई पुराने पत्रकार नये पत्रकारों के सवालों पर मुंह बिचका लेते हैं, कई नये पत्रकार पुराने पत्रकारों के बेमतलब सवालों से परेशान रहते हैं. नेता, मंत्री, विधायक या मुख्यमंत्री  पत्रकार और पत्रकारिता को लेकर क्या सोचते हैं, सभी पत्रकार जानते हैं. 

इस सवाल के जवाब में एक सवाल है, खबर पाने के लिए पत्रकारिता में कोई सीमा तय की गयी है क्या ? इस सवाल का जवाब दे दीजिए आपके सवाल का जवाब इसी में है. क्या आपने चोरी, झूठ, घूस खबरों के लिए यह सब नहीं किया...  

क्या पत्रकार ठीक से इस मामले को आम लोगों तक पहुंचा पा रहे हैं ? 

यह पूरा मामला भ्रष्टाचार से जुड़ा है. मामले की गंभीरता को समझना चाहिए कि एक व्यक्ति पद पर रहते हुए अपने ओहदे का लाभ उठाकर अनुचित ढंग से पैसे कमा रहा था. इस मामले में सुनवाई हुई है,  अगर सदस्यता गयी भी है, तो वह भ्रष्टाचार का दोषी है. इस पर फोकस किये बगैर पत्रकार यह चर्चा कर रहे हैं कि कैसे मुख्यमंत्री दोबारा इस पद पर आसानी से बैठ जायेंगे. 

सवाल है कि सजा मिली कि नहीं ? सजा मिली, तो किसे और कैसे ?  दोबारा चुनाव हुए भी, तो पैसा आम लोगों की टैक्स का जायेगा.  क्या यह पूरी प्रक्रिया का मजाक बनाने जैसा नहीं है. बिल्कुल है... 

जरूरत है, कैमरा मुख्यमंत्री आवास से मोड़कर आम लोगों तक ले जाया जाये. उनसे सवाल- जवाब किये जायें कि वह इस पूरे मामले को कितना समझ रहे हैं, नहीं समझ रहे हैं,  तो समझाया जाये लेकिन इससे होगा क्या ? क्या आम लोग न्यूज चैनल और अखबार पढ़कर अपने विचार बनाते हैं ?

क्या विधायक बिक जायेंगे ? 

अगर कोई बिकने को तैयार है, तो खरीदने वाला उस तक पहुंच जायेगा. एक छोटी सी बस ट्रिप उसे बिकने से नहीं रोक सकती. विधायक जनहित का काम, तो किसी भी पार्टी में रहकर कर सकते हैं...विचारधारा ? नेता को पार्टी या विचारधारा बदलने में उतना ही वक्त लगता है जितना नेताओं को मीडिया में बयान देकर पलटने में. एक दिन पहले जो नेता किसी भी तरह की यात्रा से इनकार कर रहे थे दूसरे दिन अपने ही बयान पर कायम नहीं रह सके. लतरातू से रायपुर तक की यात्रा हो गयी. 

 कुल मिलाकर ये कि पत्रकार उन खबरों के पीछे भागते हैं, जिन्हें आप देखना चाहते हैं. आप अगर देश की बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार और आपसे जुड़ी खबरों को प्राथमिकता नहीं देंगे, तो पत्रकार कैसे देंगे. आप  नेताओं की दौड़ भाग देखना चाहते हैं, तो पत्रकार दिखा रहे हैं फिर इसके लिए सुरक्षा कर्मियों से लड़ना पड़े या गाड़ी जबरिया सीएम आवास के बाहर खड़ी करनी पड़े या फिर विधानसभा में धरना देना पड़े. पत्रकारिता की दिशा अकेला पत्रकार तय नहीं करता, जनता करती है ऐसा तो है नहीं कि पत्रकार कुछ भी दिखायेंगे आप देखेंगे. आपने तो न्यूज चैनलों पर सांप और नेवले की लड़ाई देखी है, कई हॉरर कहानियां देखी है. हर रोज सुबह अखबार में अपना भविष्य भी देखते हैं. अखबार के राशिफल में नहीं, खुली आंखों से अपना भविष्य देखिये... 

निष्पक्ष पत्रकारिता ?

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पत्रकारिता की शुरुआत में जब विरोध के तौर पर दुध, फल, सब्जियां सड़क पर फेंके जाते थे, तो  लगता था कि इसे गरीबों में क्यों नहीं बांटते ? सड़क पर क्यों फेंक रहे हैं? गुस्सा आता था. फिर धीरे- धीरे बात समझ आयी. 

निष्पक्ष पत्रकारिता 

सरकार, पत्रकार और प्रशासन तक बात पहुंचाने का माध्यम ही यही है, कौन पत्रकार कवर करता कि फसल के सही दाम नहीं मिले, तो अनाज, दुध या फल गरीबों में बांट दिया. अगर कवर भी होता, तो किस नेता, मुख्यमंत्री या प्रशासन को फर्क पड़ता कि सही दाम मिले या नहीं ? लगता चलो, गरीबों का तो भला हुआ. 

ऐसी स्थिति हुई कैसे ? पत्रकारिता की दिशा और खबरों के चयन के लिए क्या सिर्फ संपादक जिम्मेदार होता है ? खबरें कैसे चुनी जाती हैं,जानते हैं आप ? खबरें किसके लिए चुनी जाती हैं ?  

खबरें सिर्फ आपके लिए बनती हैं और खबरों का चयन पूरी तरह इस पर निर्भर करता है कि आप क्या पढ़ना चाहते हैं ? खासकर डिजिटल माध्यम में, जरा हेडलाइन पढ़कर बताइये कौन सी ज्यादा दमदार लग रही है ?

1 फसल की कीमत नहीं मिली, तो किसानों ने गरीबों में बांट दी सब्जी

2  सड़क पर किसानों ने फेंकी सब्जियां, जानें क्या है वजह ? 

3 उर्फी जावेद का नया लुक वायरल, तस्वीर देखकर हैरान रह जायेंगे आप ? 

इस वक्त भले थोड़ा सा भी लग रहा हो कि आप ऊपर वाली हेडलाइन पर क्लिक करेंगे लेकिन यकीन मानिये आपके ऊंगलियां उस खबर पर रूकेंगी ही नहीं. इन्हें आदत हो गयी है. ऊर्फी जावेद के नये लुक को पहले देखने की. दोषी कौन है इस पक्षीय पत्रकारिता का ?

जो जिम्मेदार हैं, वहीं अक्सर पत्रकारों को खेमे में बाटते हैं. ये सरकार के पक्ष में है, ये विरोध में है.अगर इससे भी ज्यादा लोग किसी पत्रकार को समझने लगे, तो राजनीतिक पार्टी से जोड़ते हैं, थोड़ा और समझने लगें, तो खास नेता से और ज्यादा अंदर की जानकारी हो, तो नेता के व्यपार से. 

सवाल है कि सिर्फ पत्रकार ही किसी पक्ष- विपक्ष में है या पूरी पत्रकारिता ही ऐसी है? 

मेरी समझ जो सकती है..  हम कोशिश करते हैं इसे परत दर परत समझा सकें. बड़े अखबार या नोएडा वाले मीडिया हाउस के पत्रकारों की बात छोड़ देते हैं. अपनी समझ अब भी राष्ट्रीय नहीं हुई, हां क्षेत्रीय पत्रकारिता की समझ थोड़ी हो रही है. 

झारखंड में कई छोटी वेबसाइट, जो बड़े पत्रकारों की पहचान के भरोसे चल रही हैं. संचार क्रांति के इस दौर में जहां हर हाथ मोबाइल है. यूट्यूब और वेबसाइट पत्रकारिता एक बड़े विकल्प के रूप में सामने है. इसमें वो लोग शानदार काम कर रहे हैं जिन्हें स्टॉफ की सैलरी, बड़े दफ्तर का किराया, बिजली बिल नहीं भरना पड़ता. 

वो वेबसाइट, गूगल ऐड और फेसबुक से इतना कमा लेते हैं, जितना वो किसी और जगह काम करते, तो कमाते. ऐसे लोगों की अपनी पहचान भी है और आप इनसे ईमानदारी की उम्मीद कर सकते हैं. इनसे उर्फी जावेद के साथ- साथ खेती, किसानी, बेरोजगारी सहित गांव जवाब की बेहतर ग्राउंड स्टोरी की भी उम्मीद की जा सकती है. जो आप पढ़ना चाहते हैं वो भी पढ़ाते हैं और जो पढ़ना चाहिए वो भी पढ़ाते हैं. 

पहचान उनकी भी है ,जो छोटी वेबसाइट के बड़े मालिक हैं. नेताओं के साथ उठना बैठना है. राजनीति में पूरी पकड़ है. नेताओं के इंटरव्यू के साथ- साथ और भी कई परतों में रिश्ते हैं. 

इनकी वेबसाइट, तो छोटी है लेकिन स्टाफ, बिजली बिल, दफ्तर का किराया लाखों के पार है. ऐसे में गूगल - सोशल मीडिया इतने पैसे नहीं देते कि इन सबका खर्च निकले और अपना वेतन भी बचा लिया जाये. सवाल है पैसे आते कहां से है ? 

अगर आप ऐसी छोटी वेबसाइट को छोटा मानकर आंकलन करेंगे,तो बड़ी गलती होगी. इसमें किसी बड़े नेता, बिल्डर, व्यापारी के पैसे लगे होते हैं. पैसे लगाने वाले के अपने हित हैं. ठेका, सरकारी पैरवी और अगर निवेशक नेता जी रहे तो प्रचार, राजनीतिक हित सहित कई चीजें हैं.  

ऐसे कई पत्रकार नेताओं की सोशल मीडिया भी मैनेज करते हैं, नेता के अकाउंट से ट्वीट करते हैं, उनकी खबरें अपने यहां छापते हैं फिर लिंक शेयर करते हैं. साथ ही कई दूसरे पत्रकारों से आग्रह भी करते हैं कि इसे अपने यहां भी जगह दीजिए.  जगह मिली, तो नेता को समझा भी देते हैं कि अपनी सोशल मीडिया का पावर ही ऐसा है. नेता खुश..कंपनी चलती रहती है. खबरों की चिंता कम प्रचार, प्रसार की चिंता अधिक होती है. आप ऐसे समझेंगे नहीं उदाहरण देकर समझाता हूं.. किसी गरीब शोषित को पकड़ते हैं उसकी खबर चलाते हैं, नेता के टि्वटर हैंडल से खुद मदद का भरोसा देते हैं. फिर इसे अपनी वेबसाइट पर खबर के रूप में जगह देते हैं. खबर का असर, मदद का भरोसा जैसी गर्दादार हेडलाइन के साथ. अगर  इसमें उस गरीब का भी कुछ भला होता होगा तो ठीक भी है चलो... लेकिन खबर बेचने वाला  इसे खबर के असर, पत्रकार की धाक और वेबसाइट के बड़े कदम के रूप में बेच देता है. 

समझ रहा है ना विनोद....

पत्रकारों को यह भी समझा दिया जाता है, किसके खिलाफ खबर लिखना है किसके खिलाफ नहीं. कौन मित्र है, किसको टारगेट करके मालिकों को खुश रखना है और नया निवेशक कैसे जोड़ना है. अगर निष्पक्ष का मतलब किसी के पक्ष में होना नहीं है, तो पत्रकारिता चलेगी कैसे और अगर पक्षीय होकर चली तो निष्पक्षता बची कहां? 

 इसे और बेहतर समझा जा सके इसलिए मेरे कुछ सवाल हैं, जवाब आप तर्क के साथ देंगे ऐसी उम्मीद भी है. 

क्या बगैर सहयोग के सिर्फ पांच पत्रकारों की टीम मिलकर सिर्फ ईमानदारी से वेबसाइट चला सकती है ?

विज्ञापन देने वाली संस्था, संगठन या राजनीतिक दल की सही खबर जो उनके लिए नकारात्मक हो परोसी जा सकती हैं ? 

क्या सच में निष्पक्ष पत्रकारिता का कोई मॉडल है ? 

और अगर इन सबके जवाब में निष्पक्षता सवाल के घेरे में आती है, तो इसका जिम्मेदार कौन है ? 

1 पत्रकार

2 निवेशक 

3 जनता 

मेरा जवाब आपने लेख की शुरूआत में पढ़ लिया है, आपके जवाब के इंतजार में अबतक निष्पक्ष रहा पत्रकार 

सरकारी नौकरी : एक दिन के काम पर भी जिंदगी भर पेंशन, योग्यता- कुछ भी चलेगा

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Mp Mla Salary And Pension

एक दिन की भीा नौकरी कर ली,तो जिंदगी भर की राहत. समय पर पेंशन और यात्रा, फोन सहित ढेर सारी सुविधाएं.  कौन सी नौकरी है ? योग्यता क्या है ? योग्यता तो इतनी है कि एक बिल्कुल अयोग्य व्यक्ति भी आवेदन कर सकता है. हर एक व्यक्ति के पास समान अवसर. टाइम पर दफ्तर पहुंचने का लफड़ा नहीं, आप किसी कंपनी या फैक्ट्री के कर्मचारी नहीं होंगे, एक दिन के लिए भी काम किया तो जीवनभर 25 हजार रुपये से ज्यादा की पेंशन. यात्रा भत्ता के साथ कई तरह की सुविधाएं.  है, ना शानदार नौकरी... नौकरी प्राइवेट नहीं है सरकारी है. पद है सांसद या विधायक. अरे पहले फायदे तो पढ़ लीजिए फिर सोचियेगा करना है कि नहीं.  अपने राज्य के आंकड़े से समझाता हूं ,ज्यादा बेहतर समझ सकेंगे. झारखंड में पांच साल पूरा करने वाले विधायकों को 40 हजार रुपए प्रति माह पेंशन राशि निर्धारित है.  एक बार 40 हजार रुपए का पेंशन निर्धारित होते ही प्रति वर्ष उसमें केवल 4 हजार रुपए की वृद्धि होती जाएगी. 

अगर कोई नेता पूर्व सांसद या विधायक की पेंशन ले रहा है इसके बाद वो मंत्री बनता है तो मंत्री पद के वेतन के साथ ही पेंशन.  सांसदों और विधायकों को डबल पेंशन का हक है और सरकारी कर्मचारियों की सिंगल पेंशन स्कीम भी छिन ली गयी. पेंशन के लिए कोई न्यूनतम समयसीमा तय नहीं है, यानी कितने भी समय के लिए नेताजी सांसद रहे हों, पेंशन पाने का पूरा अधिकार है. सांसद या विधायक जी की मौत हो गयी, तो परिवार को आधी पेंशन. पूर्व सांसदों का सेकेंड एसी रेल का सफर मुफ्त. 

सैलरी के अलावा और भी बहुत कुछ

किसी भी सांसद को मिलने वाले पैसे के चार हिस्से होते हैं.  सैलरी, निर्वाचन क्षेत्र के लिए भत्ता, ऑफिस के लिए खर्च और सहायक के लिए वेतन। ट्रैवल अलाउंस महंगाई के हिसाब से बदलता है. कितना मिलता है इससे समझ सकते हैं कि एक नेता के तीन महीने ट्रैवल का बिल 20 लाख रुपये आया था. 2002 तक देश व प्रदेश में  सरकारी क्षेत्र में काम करने वाले हर एक कर्मचारी को पेंशन मिलती थी, लेकिन 2002 के बाद OPS को बंद कर दिया गया बदले में कई जगहों पर आंदोलन हुए तो कई राज्यों ने फैसला लिया पुरानी पेंशन बहाल करने का.  20 राज्य तो ऐसे हैं जो अपने पूर्व विधायकों को किसी सांसद से ज्यादा पेंशन देते हैं. विधानसभा और विधान परिषद के सदस्यों को भी पेंशन मिलती है. जनप्रतिनिधियों को दी जाने वाली पेंशन की व्यवस्था इस देश में नेता और सरकारी कर्मचारियों के बीच के बड़े फर्क को दिखाती है.  ?  ब्रिटेन दुनिया का सबसे पुराना प्रजातंत्र है. वहां के सांसदों को वेतन व पेंशन की सुविधा है, परंतु वहां सांसदों का वेतन, पेंशन निर्धारित करने के लिए एक आयोग का गठन होता है। इस आयोग में विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को शामिल किया जाता है। इस आयोग को स्थायी रूप से यह आदेश दिया गया है कि सांसदों को इतना वेतन और सुविधाएं न दी जाएं जिससे लोग उसे अपना करियर बनाने का प्रयास करें और न ही उन्हें इतना कम वेतन दिया जाए जिससे उनके कर्तव्य निर्वहन में बाधा पहुंचे.  

1990 और अब कितना बढ़ा वेतन 

'लेजिस्लेटर्स इन इंडिया, सैलरीज एंड अदर फैसिलिटीज' नामक एक पुस्तक में नेताओं के मिलने वाली पेंशन की तुलना की गयी है. साल  1990 में मध्यप्रदेश के विधायकों का मासिक वेतन 1,000 रुपए था. 30,000 रुपए प्रतिमाह है. उस समय निर्वाचन क्षेत्र भत्ता 1,250 रुपए था, अब 35,000 रुपए है.  टेलीफोन भत्ता 1,200 रुपए प्रतिमाह था, आज 10,000 रुपए है. चिकित्सा भत्ता 600 रुपए था अब 10,000 रुपए है. स्टेशनरी भत्ता 10,000 रुपए प्रतिमाह ,  कम्प्यूटर ऑपरेटर/ अर्दली भत्ता 15,000 रुपए मिलता.  कुल 1,10,000 रुपये. सांसदों और विधायकों को एक ऐसा भत्ता भी मिलता है, जो शायद देश तो क्या, दुनिया में भी कहीं नहीं मिलता होगा। प्रत्येक सांसद और विधायक को दैनिक भत्ता मिलता है अर्थात उसे संसद और विधानसभा की दिनभर की कार्यवाही में शामिल होने के लिए दैनिक भत्ता मिलता है. 

सुविधाओं में इतना फर्क क्यों 

देश की अर्थव्यस्था और बेरोजगारी की स्थिति आपको पता ही है. आपने सुना है कि कभी इन पदों में कटौती की गयी है, वेतन में कटौती की गयी या सुविधाओं में कटौती हुई है. नेता की पेंशन तय करने के लिए  संसद में दोनों सदनों की एक संयुक्त समिति बनती है. इसमें राज्यसभा के पांच और लोकसभा के 10 सदस्य होते हैं. पेंशन और सुविधाओं की इस सूची को देखकर आपके मन में सवाल उठ रहा होगा आखिर इसे रोका क्यों नहीं जाता.  पेंशन का मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट पहुंचा था. एक गैर सरकारी संस्था ने इस पर सवाल खड़ा करते हुए याचिका दायर की थी. मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा  केस खारिज कर दिया गया. सरकारी कर्मचारी औऱ नेता दोनों जनता की ही सेवा करते हैं फिर इनकी सुविधाओं में इतना फर्क क्यों 

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