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मेरे गांव की होली

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शहर और मेरे गांव की होली 


12 साल का एक बच्चा गांव की धूल भरी सड़क पर भाग रहा है। उसके साथ धोखा हुआ है। दोस्त जिनके भरोसे वो दुश्मन के इलाके में कूद गया, उसे मुसीबत में छोड़कर उल्टे पांव भाग गए। बच्चा खुद को बचाता हुआ दौड़ रहा उसने अपनी जेब मजबूती से मुट्ठी में पकड़ रखी है।  उसे इसका भी ख्याल रखना था कि ऊपर वाली जेब में रंग की  डिब्बी है, दौड़ते हुए गिरनी नहीं चाहिए। जब उसे लगा कि वह पकड़ा जाएगा, तो उसने गांव रास्ता छोड़ खेत और पगडंडियों की तरफ भागना शुरू किया। बहुत देर तक उसका पीछा होता रहा लेकिन वह इतनी तेज और इधर- उधर होकर भागा कि किसी तरह बचने में सफल रहा। इस बार जब वह अपने इलाके में पहुंचा तो पहले ही उसके साथी उसका इंतजार कर रहे थे। उसने वहां पहुंचते ही रंग की सारी डिब्बी दोस्तों के सामने रखते हुए कहा मेरा हो गया। धोखेबाजों में तुम्हारे भरोसे गया और तुम सब भाग लिए। मैं किस तरह बचकर निकला हूं, मैं ही  जानता हूं। दोस्तों ने समझाया, फिर प्लानिंग बनी, पहले से ज्यादा मजबूत और इतनी भरोसे के साथ बार फिर सभी मिलकर उसी इलाके में गए जहां से कुछ देर पहले भागते वक्त मैं यह प्रार्थना कर रहा था भगवान आज बचा ले बस।  


ये मेरे गांव की होली है। बचपन में होली की जिन यादों को अपने साथ लिए फिरता हूं, उसमें से एक यह भी घटना है। मेरा गांव बहुत बड़ा नहीं है। मुश्किल से 40 घरों का एक छोटा सा गांव है। घर से कुछ दूर पर एक नदी बहती है। गांव में ज्यादातर मकान कच्चे हैं। हर साल होली और दिवाली में गांव हमारा इंतजार करता था। मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि गांव की होली का मजा दुनिया के किसी कोने में नहीं है। हम बच्चे पहले अपने इलाके में एक दूसरे को रंग लगाते। भागते- भगाते जिसे रंग लगा लिया उसके साथ अपनी एक टीम बन गई सभी रंगाए पुताए लोग एक तरफ। हम सभी मिलकर गांव के बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी नहीं छोड़ते। रंग भरा पानी किसी पर फेक देते तो किसी की पीठ पर पंजे का निशान लगाकर खुश हो जाए। कोई बड़ा जब मना करता कि अभी फंला काम से जा रहा हूं.. अभी नहीं आधे घंटे बाद। हम तुरंत दौड़कर दूसरे रास्ते से उससे आगे निकलते और दूसरे दोस्तों को रंग देकर अचानक उस पर धावा बोलवा देते। हम दिवार के पीछे खड़े रहते।  जब गांव के हमारी उम्र के सभी बच्चों को रंग लग जाती तो हमारी दो टीम बन जाती। एक टीम जो दूसरे टीम के लोगों को टारगेट करती। बस यही भाग दौड़ चलती रहती पूरे दिन । 


गांव में दोपहर होते - होते बड़े लोगों की टीम निकलती थी। उसमें मांदर, ढोलक, नगाड़ा सब होता था। गांव के हर घर तक वो टोली पहुंचती। गांव में हमारा एकलौता ब्राह्मण परिवार था ये टोली वहां पहुंचकर बड़ी सभ्यता से बड़ों के पैरों में रंग लगाती। हर घर से अनाज या पैसे लिए जाते। हम उम्र के साथ कभी-कभी ये टोली बच्चों की तरह हो जाती थी। कुछ लोग घर के दरवाजे बंद कर लेते थे तो इस टोली में से कुछ खप्पर खोलकर घर के अंदर प्रवेश कर जाते। कुंडी खुल जाती फिर अलग बवाल। हम भी इस टोली के साथ होते थे और अपनी उम्र के बच्चों को टारगेट करते थे। 


शाम पांच बजे तक यह चलता था। हम देर तक इसलिए टिके  रहते थे क्योंकि कई बच्चे बड़ी मुश्किल से रंग छुड़ाकर नदी से निकलते और हम उन्हें दोबारा रंग लगा देते। दोबारा रंग लगाना है या नहीं यह रिश्ता तय करता था। किसी से अच्छी नहीं बनती तो उसे किसी भी तरह पकड़कर रंग लगाना है। अगर किसी से बनती है तो हमें देखकर भागेगा नहीं हाथ जोड़े खड़ा हो जाएगा। उसे भरोसा है कि उनका  आग्रह स्वीकार भी कर लिया जाएगा। जिस अपने रिश्ते पर ही भरोसा नहीं वो तो भागेगा।  अगर किसी के माता- पिता या बड़ा कोई साथ है तबतक हम चाहकर भी नहीं लगा पाते ऐसे में फिर किसी दिवार में छिपकर रंग फेंकने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं था। ऐसे में वो बड़ा भी चपेट में आ जाता था यह बड़ा जोखिम भरा काम था क्योंकि इसमें मां तक शिकायत पहुंचने का खतरा था।  शाम के बाद नहाकर अच्छे कपड़े पहनते थे और अबीर का चलन था। दूसरों के घर जाकर पुआ, दही बड़े खाने का मजा ही कुछ और था।  


मैंने कई बार जानना चाहा कि जो पैसे और अनाज टोली जमा करती है उसका क्या होता है। मुझे पता चला कि होली से ज्यादा हमारे गांव में बासी की परंपरा है। होली के एक दिन बाद बासी होली मनाई जाती है। इस  दिन जमा पैसे और अनाज का टोली में शराब पीने वाले लोग जमकर शराब पीते हैं और गांव में जिनके घर पर अखरा होता है वहां जमकर होली गाई जाती है। डमकच होता है हालांकि ये कब कहां और कैसे आयोजित होता है यह बच्चों तक कभी पहुंचता नहीं था हम तो बस रास्ते में उन लोगों से टकराते जो डमकच खेलने जाते थे या खेलकर आते थे। 


मुझे वो होली याद आती है। बचपन याद आता है। आज भी मैं जहां रहता हूं वो 40 घरों से ज्यादा बड़ी बिल्डिंग होगी लेकिन वो गांव वाला लगाव महसूस नहीं हुआ। हमारे बगल वाले फ्लैट में कौन है, उसके परिवार में कितने लोग हैं मालूम नहीं पड़ता। शहर के संबंध बेमतलब के नहीं होते और जब संबंध ही नहीं तो इन त्योहारों का मतलब क्या है। हां पूरी सोसाइटी मिलकर होली मिलन आयोजित करती है। गाने बजते हैं,डांस होता है लेकिन इन सबके बीच मुझे मेरा गांव याद आता है। वो बच्चा याद आता है जो उस दिन बस किसी तरह खुद को बचा लेना जाहता था। 


कभी- कभी सोचता हूं त्योहार में गांव चला जाऊं लेकिन मेरे वो सारे दोस्त जो मेरी टीम का हिस्सा थे। खुद गांव से दूर हैं। मेरे गांव से ज्यादातर लोग अंडमान कमाने निकल गए हैं। एक गया फिर दूसरे को ले गया इस तरह गांव के लगभग सभी युवा काम की तलाश में पंजाब, दिल्ली या दक्षिण में काम कर रहे हैं। गांव में लोग ही नहीं  जाऊं भी किसके पास। मेरा पूरा परिवार जो त्योहार में इकट्ठा होता था अब बिखर गया है। सबके पास अपनी मजबूरियां है, तर्क है। असल वजह है गांव ना आ पाने की। गांव का घट खंडहर हो रहा है। छह महीने में एक बार जा पाता हूं तो बस इतना करके लौट पाता हूं कि वो टूटकर ना गिर जाए। 

जरा सोचकर देखिए वो टिका भी किसके कांधे पर है। गांव की वो दिवार जो चुने से पोती गई थी होली के दिन हाथ और ना जाने कैसे- कैसे रंग और आकृतियों से भरी रहती थी। वो कोरी दिवारें क्या राह नहीं देखती होगी। गांव की वो पगडंडी, वो खेत वो टोली क्या राह नहीं देखती होगी। वक्त बदला जरूर है । पूरी की पूरी एक पीढ़ी गुजर गई लेकिन एक नई पीढ़ी तैयार है.. जो गांव के उसी आनंद को महसूस करेगी, वैसे ही दौड़ेगी। गांव की वो कोरी दिवारों पर फिर रंग चढ़ेगा। बस कुछ वक्त और कुछ वक्त और....


संजय की आंखों से देखिए लेकिन धृतराष्ट्र की तरह नहीं- बियॉन्ड न्यूज पत्रकारिता, चाटुकारिता, ऑफिस पॉलिटिक्स और इस पेशे का स्याह पक्ष दिखाने वाली किताब है।

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किताबा बियॉन्ड न्यूज


बियॉन्ड न्यूज 168 पन्ने की इस किताब को कम से कम पत्रकारों को तो पढ़ना ही चाहिए। इस किताब के पन्ने में आप अपने कई अनुभव पायेंगे जो आपके या आपके किसी कलीग के साथ हुए हैं। कैसे खाने और गिफ्ट की व्यवस्था पर एक ही संस्था के कई पत्रकार जमा हो जाते हैं।  यह अनुभव आपको भी होगा और किताब में बड़े ही रोचक ढंग से इसे प्रस्तुत किया गया है। पत्रकारिता में राजनीति, संपादक से नजदीकी के महत्व को भी शानदार ढंग से समझाया गया है। यह भी समझाया गया है कि कैसे संपादक के बदलने से न्यूज रूम का वर्किंग कल्चर ही बदल जाता है। कैसे पत्रकार खबरों से समझौता करने लगते हैं। कैसे एक पत्रकार अपने भविष्य को लेकर चिंतित रहता है। 


मुलत:  तीन पत्रकारों के अनुभव के निचोड़ की यह किताब  पत्रकारिता को और नजदीक से समझने का अवसर देती है।  किताब यह भी सीखाती है कि  ईमानदारी और मेहनत से काम का परिणाम मिलता है लेकिन समझौते और पीछे हटने से आपकी तरक्की और उपलब्धियां भी पीछे हटने लगती है। संजय को पहली नौकरी से तंग किया गया, ऐसे एसाइनमेंट में भेजा जो उसे पसंद नहीं थे। मन मसोह कर वह काम करता रहा लेकिन यही काम उसे नए अवसर देते रहे। अगर उसे भी उन दो लोगों की तरह माथे पर बैठाकर रखा जाता तो उसके हाथ बड़ी खबरें नहीं लगती। इस खराब समय ने संजय के लिए इतना अच्छा तो कर दिया कि उसकी लेखनी की चर्चा होने लगी। किताब सिखाती है कि कैसे अपने बुरे समय में भी बेहतर करने का प्रयास आपके लिए इस बुरे समय को अच्छे में बदल देता है। 


किताब भले ही दशकों पुराने अनुभव के आधार पर लिखी गयी हो लेकिन इतने सालों के बाद भी पत्रकारिता में कुछ स्थितियां जस की तस हैं। न्यू मीडिया और सोशल मीडिया ने आज लोगों के हाथ मजबूत जरूर किए हैं लेकिन कई चुनौतियां भी दी है। पत्रकारों की भीड़ इस वजह से बढ़ी है तो जाहिर है कि पहले की अपेक्षा में रानजीति भी इस पेश में अब ज्यादा है। पहले इसे लेकर संशय था कि अखबार एक प्रोडक्ट बनता जा रहा है। अब साफ है कि अखबार अब एक प्रोडक्ट बन गया है। संजय कैसे प्रिंट से होता हुआ टीवी तक पहुंचा और कैसे टीवी चैनल का बाजार कुछ ही समय में सिमट गया। इस पेशे में आज भी यही संकट है कि आज नौकरी है, कल है या नहीं, पता नहीं। 


मैं रांची में लगभग 12 सालों से पत्रकारिता कर रहा हूं मेरे आंखों के समाने कितान पढ़ते वक्त कई रिपोर्टर, फोटोग्राफर गुजर गये जिन्होंने इस पेशे को अपना सबकुछ दिया लेकिन बदले में उन्हें कुछ नहीं मिला। कोई फोटोग्राफर डोमिसाइल आंदोलन के वक्त घायल हुए, तो कोई रैली मोर्चा कवर करते वक्त पुलिस की बर्बरता का शिकार हुआ। कई बार पुलिस की लाठियां पत्रकारों पर सिर्फ इसलिए पड़ती है क्योंकि उनके कैमरे का लैंस वो सच भी दिखाता है जो उसे दिखना नहीं चाहिए। कैमरा इंसान तो है नहीं कि किसी दबाव में आ जाए। ज्यादार पत्रकारों ने अपने जीवन में कभी ना कभी कोई ना कोई ऐसी स्टोरी की है जिसमें जान का खतरा है। संजय और सजल भी ऐसी ही रिपोर्ट से होकर गुजरे हैं। इस पेशे पर पत्रकारों को भले भरोसा रहा हो, घरवालों को नहीं रहा। संजय की पत्नी इस लिए इस पेश की पेचिदगी समझती रही क्योंकि उसने पत्रकारिता पढ़ी। 


संजय के साथ सजल भी अपने अनुभवों से बहुत कुछ सीखाते हैं। कैसे उन्होंने एक समय के बाद अपना पूरा समय परिवार को दिया और इस समय का परिणाम ही रहा कि उनकी बेटी डीएम बनी। पिता को कितना गर्व हुआ कि उसने अपना समय, सही समय पर, सही जगह निवेश किया और कभी-कभी अकेले बैठकर यह सवाल भी जरूर करते होंगे कि पत्रकारिता को जो समय दिया उसके बदले मिला क्या? जैसे संजय की खबर मुंगफली वाले के लिए ठोंगे का काम करती है वैसे ही पत्रकार कितना भी बड़ा हो अगर वह बाजार में नहीं है तो लोग उसे भूल भी जाते हैं। 


अंजान शहर, दफ्तर, कंपनी और नौकरी बदलता रहा जहां समझौता करना था वहां करता भी रहा और आज भी सफर में है। बस इस सफर में उसके दो दोस्त आगे निकल गये। संजय ने यह सोचा की जब बाजार में प्रोड्क्ट ही बेचना है तो "सेल्समैन" पत्रकार बनने से बेहतर है कि इस पेशे से ही किनारा कर लिया जाए। इस निर्णय ने संजय को बड़ी कंपनी के जिम्मेदार पद पर ला दिया। संजय इस किताब में यह समझाते हैं कि कैसे मजदूरों का विरोध कभी विरोध नहीं होता, उन्हें कितने भी पैसे दे दो हमेशा उन्हें ज्यादा की उम्मीद होगी। ये बात अलग है कि जमशेदपुर में जब वह इस मामले पर रिपोर्टिंग करना चाहता था तो उसके संपादक ने ही उसे यह बात कही थी, उस वक्त उसे ये पसंद नहीं आई थी लेकिन समय और बदले वक्त में पाला बदल जाता है। पहले संपादक को कोई बड़ी कंपनी का अधिकारी रोकता था तभी संजय को कभी इस तरह के खबर को करने की इजाजत नहीं मिली। आज संपादक को संजय कंपनी के खिलाफ किसी भी निगेटिव न्यूज को कवर करने के लिए रोकता है।


इस किताब को लिखने वाले शक्ति व्रत और संजीव शेखर को पत्रकारिता का लंबा अनुभव है। दोनों के द्वारा लिखी गई इस किताब ने पत्रकारों के लिए कई महत्वपूर्ण सवालों, शंकाओं का समाधान प्रस्तुत किया है। इंसान दो चीजों से सीखता है एक अपने अनुभव से और दूसरा दूसरों के अनुभवों से जो दूसरे के अनुभवों से सीखता है, वह अपने जीवन में उन सारे बुरे अनुभव को महसूस करने से बच सकता है। इस किताब के लेखक संजीव शेखर आज एक सफल कॉरपोरेट प्रोफेशनल है और बड़ी कंपनी में कॉरपोरेट अफेयर्स और कम्युनिकेशन की जिम्मेदारियों का सफलतापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं। दूसरे लेखक शक्ति व्रत से ज्यादा परिचय तो नहीं लेकिन इतना यकीन से कह सकता हूं कि आज वो भी सुकून भरा जीवन जी रहे होंगे और किसी अच्छी जगह बैठकर दूसरी किताब लिखने की योजना बना रहे होंगे। इस कहानी के पात्रों को और नजदीक से समझने के लिए संजय की दिखाई नजरों से धृतराष्ट्र की तरह मत देखिएगा, आपकी अपनी आंखे हैं, किताब के बताए रास्तों तक पहुंचकर थोड़ी बहुत पड़ताल करेंगे,  तो असल किरदार आपके सामने होंगे।

प्रधानमंत्री से कैसे मिल सकते हैं ?

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प्रधानमंत्री के काफिले के बीच आ गयी महिला, हुई जेल 
क्या एक साधारण आदमी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिल सकता है। जवाब हां लेकिन कैसे। क्या इस तरह. आप इस वीडियो में देख रहे हैं कि कैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की झारखंड यात्रा के दौरान रांची के रेडियम रोड के पास अचानक काफिले के बीच एक महिला आ गयी थी।इस महिला को अब जेल हो गयी है। सरकारी काम में बाधा डालने सहित कई गंभीर आरोप इस मिला पर लगे हैं। प्रधानमंत्री से मिलने का यह तरीका नहीं है।आपने दशरथ मांझी की भी कहानी सुनी होगी कि कैसे वह दिल्ली पैदल चलकर प्रधानमंत्री से मिलने चले जाते हैं। कई लोग हैं जो अपनी निजी परेशानी लेकर सीधे प्रधानमंत्री से मिलना चाहते हैं दिल्ली चले जाते हैं। उन तक रैली में, सरकारी कार्यक्रमों के दौरान ऐसी ही मिलने की कोशिश करते हैं। अगर आप भी इस तरह का प्रयास करेंगे तो आपके साथ वही होगा जो इस महिला के साथ हुआ। अब सवाल है कि प्रधानमंत्री से मिल कैसे सकते हैं।  आज हम प्रधानमंत्री से मुलाकात करने, उन तक अपनी बात पहुंचाने की पूरी प्रक्रिया को समझेंगे। अंत में मैं आपको प्रधानंमत्री का फोन नंबर भी दूंगा जिससे आप उनसे संपर्क कर सकते हैं।
 स्टेप बाई स्टेप प्रोसेस…
  • सबसे पहले आधिकारिक वेबसाइट www.pmindia.gov.in पर जाएं.
  • यहां ऑप्शन में जाकर Interact with PM पर क्लिक करें.
  • यहां दो ऑप्शन दिखाई देंगे, जिसमें एक ऑप्शन से आप पीएम मोदी को सुझाव दे सकते हैं.
  • दूसरे ऑप्शन के जरिए आप अपनी बात पीएम मोदी तक पहुंचा सकते हैं और कार्यालय को लिख सकते हो.
  • पीएम से अपॉइंटमेंट लेने के लिए दूसरे लिंक पर क्लिक करना होगा, जिसके बाद एक फॉर्म खुलेगा.
  • इसमें फॉर्म में आपको अपनी जानकारी देनी होगी.
  • इसके बाद इसमें एक Catagory का ऑप्शन दिखाई देगा. इसमें कई ऑप्शन होंगे.
  • आपको इनमें Appointment With PM पर क्लिक करना होगा.
  • इसके बाद Description में अपको कारण लिखना होगा कि आखिर आप पीएम मोदी से क्यों मिलना चाहते हैं.
  •  ये फॉर्म भरने के बाद आपको रिक्वेस्ट पीएम ऑफिस तक चली जाएगी, इसके बाद आगे के लिए आपको अपडेट कर दिया जाएगा.

अपॉइंटमेंट के लिए अलावा ये भी हैं ऑप्शन
अगर पीएम मोदी की बात करें इसके अलावा आपको शिकायत, सजेशन, फीजबैक, कोई फ्रॉड, स्कैम, ग्रीटिंग, विश, मैसेज रिक्वेस्ट का मौका भी मिलता है. आप इसी फॉर्म के जरिए इन सब के लिए रिक्वेस्ट कर सकते हैं. आपको बस इसमें Catagory में Appointment With PM पर क्लिक करने के बजाय कोई और ऑपश्न का चयन करना होगा.

मुश्किल से मिलता है अपॉइंटमेंट
आप देश के प्रधानमंत्री से मिलना चाहते हैं। यह कोई छोटी बात तो है नहीं। प्रधानमंत्री से मिलना आसान नहीं है  अपॉइंटमेंट मिलना काफी मुश्किल होता है. हालांकि, लोकतांत्रिक व्यवस्था में पीएम से मिलने का अधिकार भी आम आदमी के पास होता है और पीएम से टाइम लेकर उनसे मिल सकते हैं. अगर आप भी पीएम तक अपनी बात पहुंचाना चाहते हैं या शिकायत करना चाहते हैं तो आप इस पोर्टल के जरिए शिकायत कर सकते हैं. इसके बाद आपको एक नंबर भी मिल जाता है, जिसके जरिए आप इसका स्टेट्स भी देख सकते हैं.

प्रधानमंत्री ऑफिस के आधिकारिक वेबसाइट pmindia.gov.in के मुताबिक, जो लोग भी पीएम मोदी से संपर्क करना चाहते हैं, वो फोन नंबर के जरिए ऐसा कर सकते हैं. आपको पीएम मोदी से संपर्क करने के लिए बस इस आधिकारिक नंबर को डायल करना होगा. ये नंबर है +91-11-23012312. वहीं अगर आप पीएम मोदी से फैक्स के जरिए संपर्क करना चाहते हैं तो आपको इस फैक्स नंबर का इस्तेमाल करना चाहिए. ये फैक्स नंबर हैं- +91-11-23019545, 23016857. इसके साथ ही आप देश के प्रधानमंत्री से पत्र के जरिए भी संपर्क कर सकते हैं,

कई लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपनेी समस्या सीधे प्रधानमंत्री तक सुनाई है और वो समस्या हल हो गयी। कुल मिलाकर ये कि देश के प्रधानमंत्री से मिलना चाहते हैं तो मिल सकते हैं लेकिन यह प्रक्रिया आसान नहीं है। 

हॉकी का खेल लेकिन असल खिलाड़ी कौन ?

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खेल के पीछे के खिलाड़ी 


देश में पहली बार वीमेंस एशियन हॉकी चैंपियंस ट्रॉफी 2023 के आयोजन का गवाह झारखंड बना। कार्यक्रम बेहद सफल रहा। महिला हॉकी टीम ने यह दिखा दिया कि अगर उन पर विश्वास किया जाए तो टीम क्या कर सकती है। 

सवाल है कि टीम पर विश्वास किसने जताया ?  टीम पर विश्वास जताया ओड़िशा ने  साल 2033  तक ओडिशा सरकार भारत की पुरुष और महिला टीम की प्रायोजक  है। ओड़िशा में हॉकी के खिलाड़ियों के लिए जो माहौल और सुविधाएं मिली क्या वह झारखंड में है। इसका जवाब आप कमेंट बॉक्स में दीजिएगा मुझे इंतजार रहेगा। 

झारखंड और हॉकी 

झारखंड में  1988 के बाद से, लगभग 55 लड़कियों ने भी विभिन्न आयु समूहों में राष्ट्रीय स्तर के टूर्नामेंट में खेलकर राष्ट्रीय सर्किट में जगह बनाई है। कम से कम 20 लड़कियां देश के लिए खेलते हुए विदेश की यात्रा कर चुकी हैं।मुझे लगता है लापरवाही के कारण हॉकी में झारखंड का दबदबा कम हुआ है, वहीं पड़ोसी राज्य ओडिशा जहां खिलाड़ियों के साथ बेहतर व्यवहार किया जाता है और अच्छा समर्थन किया जाता है, वह मजबूत होकर उभर रहा है।

हॉकी का पूरा इतिहास

हॉकी पर झारखंड में इन खिलाड़ियों की स्थिति पर और चर्चा करेंगे पहले हॉकी का इतिहास समझ लीजिए 1,000 ईसा पूर्व इथियोपिया में इस खेल के प्रमाण मिले।  माना यह भी जाता है कि अफ्रीकन देशों में "गेना" के रूप में एक गेम खेला जाता था, जो फील्ड हॉकी से मिलता है। यह क्रिसमस के अवसर पर खेला जाता था। जबकि, खेल का एक प्राचीन रूप लगभग 2,000 ईसा पूर्व ईरान में भी इसी प्रकार का खेल खेला जाता रहा है। मंगोलिया में 'बीकोउ' नामक एक खेल जाता था जो हॉकी के ही समान था। इसके बाद ग्रीस में भी इस खेल के निशान मिले। 5वीं शताब्दी ईस्वी पूर्व में ही आयरलैंड में 'हर्लिंग' नामक खेल खेला जाता था, यह पूरी तरह हॉकी तो नहीं पर उसी के जैसा था था  1200 ईसा पूर्व स्कॉटलैंड में "गेलिक या शिंटी खेल " से प्रचलित हुआ।

यूरोप, यूनान, अफ्रीका, और एशियाई देशों में इसे अलग-अलग नामों से खेला यह खेला जाता रहा।  13वीं शताब्दी के आसपास फ्रांस में ला सोल नाम से। कोलंबस द्वारा नई दुनिया (अमेरिका) की खोज करने के बाद 15वीं और 16वीं एजटेक सभ्यता में इस खेल का जिक्र मिलता है। दुनिया के सबसे पुराने खेलों में से एक, हॉकी की शुरुआत संभवत: 1527 में स्कॉटलैंड से मानी जाती है। तब इसे अंग्रेजी में होकी (Hokie) के नाम से जाना जाता था।

आधुनिक युग में हॉकी 

आधुनिक युग में  हॉकी की शुरुआत 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी की शुरुआत में अंग्रेजों द्वारा हुई थी। तब ये स्कूल में एक लोकप्रिय खेल हुआ करता था और फिर ब्रिटिश साम्राज्य में 1850 में इसे भारतीय आर्मी में भी शामिल किया गया। जिन-जिन देशों में अंग्रेजी शासन रहा, वहां-वहां हॉकी के खेल का विस्तार हुआ।

हॉकी के नाम के पीछे की कहानी 

अब आती है नामकरण की बारी "हॉकी" नाम फ्रांसीसी शब्द के हॉक्वेट से लिया गया है, जिसका अर्थ है "चरवाहे का डंडा"। फिर भी यह एक धारणा ही है। इससे लेकर कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलाता है। हालांकि, जैसे हॉकी की उत्पत्ति अस्पष्ट बनी हुई है। वैसे ही नामकरण की भी अंधेरे में हैं।

शुरू-शुरू में महिलाओं के हॉकी खेलने पर प्रतिबंध था, लेकिन इस प्रतिबंध के बाद भी महिलाओं में हॉकी खेल के प्रति रुचि थी। 1927 में महिलाओं की हॉकी टीम के लिए एक संस्था का गठन किया गया, जिसका नाम 'इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ विमेंस हॉकी एसोसिएशन' (IFWHA) रखा गया। इस संस्था से धीरे-धीरे महिला टीम का निर्माण होने लगा। इससे महिलाओं में हॉकी के प्रति रूचि बढ़ती गई। 1974 में हॉकी का पहला महिला विश्व कप का आयोजन किया गया। 1980 में महिला हॉकी को ओलंपिक में शामिल किया गया।

भारत कैसे आया हॉकी 

भारत में हॉकी ब्रिटिश सेना के रेजिमेंट में सबसे पहले शामिल किया गया था। भारत में सबसे पहले ये खेल छावनियों और सैनिकों द्वारा खेला गया। भारत में झांसी, जबलपुर, जांलधर, लखनऊ, लाहौर आदि क्षेत्रों में मुख्य रूप से हॉकी खेला जाता था। लोकप्रियता बढ़ने के चलते भारत में पहला हॉकी क्लब और 1855 में कोलकाता में गठन किया गया था।


इसके बाद मुंबई और पंजाब में भी हॉकी क्लब का गठन किया गया। 1928 से 1956 का दौर भारत के लिए स्वर्णिम काल रहा है। 1925 में भारतीय हॉकी संघ (Indian Hockey Federation, IHF) की स्थापना हुई थी। IHF ने पहला अंतरराष्ट्रीय टूर 1926 में किया था, जब टीम न्यूजीलैंड दौरे पर गई थी। भारतीय हॉकी टीम ने 21 मैच खेले और उनमें से 18 में जीत हासिल की। इसी टूर्नामेंट में ध्यानचंद जैसी दिग्गज शख्सियत को दुनिया ने पहली बार देखा था, जो आगे चलकर सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी बने।

भारतीय हॉकी टीम ने ओलंपिक में पहली बार 1928 में कदम रखा। भारत को 1928 के ओलंपिक खेलों में ग्रुप ए में रखा गया था जिसमें बेल्जियम, डेनमार्क, स्वीटजरलैंड और ऑस्ट्रिया की टीम थी। भारत ने यहां स्वर्ण पदक जीता। यहीं से भारतीय हॉकी टीम के सुनहरे अतीत की शुरुआत हुई थी और फिर भारत ने अब तक रिकॉर्ड 8 ओलंपिक स्वर्ण पदक अपने नाम किए हैं।

झारखंड में हॉकी और इसके दिग्गज खिलाड़ी

झारखंड में  जयपाल सिंह मुंडा, माइकल किंडो, सिल्वानुस डुंगडुंग, मनोहर टोपनो, सुमराय टेटे, असुंता लकड़ा जैसे दिग्गज खिलाड़ी शामिल हैं. आज इन्हीं को आदर्श मानकर कई जूनियर हाॅकी खिलाड़ी जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं. इनका सपना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाया। 


जयपाल सिंह मुंडा

झारखंड के पहले हॉकी ओलिंपियन रहे हैं. उनकी कप्तानी में भारत ने 1928 में एम्सटर्डम ओलिंपिक में पहला स्वर्ण पदक हासिल किया. इस ओलिंपिक में जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में भारतीय टीम ने 17 मैचों में 16 में जीत दर्ज की.


माइकल किंडो

1972 म्यूनिख ओलिंपिक में झारखंड के माइकल किंडो ने हॉकी टीम का प्रतिनिधित्व किया था. इस वर्ष टीम ने कांस्य पदक जीता था.

सिल्वानुस डुंगडुंग

1980 मास्को ओलिंपिक में भारत ने आाखिरी गोल्ड मेडल जीता था. इस टीम में झारखंड के ध्यानचंद अवार्ड प्राप्त करनेवाले सिल्वानुस डुंगडुंग शामिल थे. उन्होंने फाइनल में आखिरी गोलकर स्पेन पर चार-तीन से जीत दिलायी थी.


मनोहर टोपनो

झारखंड के चौथे हॉकी ओलिंपियन हैं मनोहर टोपनो. इन्होंने 1984 में लॉस एंजिलिस ओलिंपिक में टीम का प्रतिनिधित्व किया था.


सुमराय टेटे

सुमराय टेटे भारतीय महिला हॉकी टीम की सदस्य रह चुकी हैं. उन्हें 2002 में ध्यानचंद अवार्ड से सम्मान मिल चुका है.


असुंता लकड़ा

वर्ष 2000 से 2014 तक असुंता लकड़ा भारतीय हॉकी टीम की सदस्य रही हैं. टीम की कप्तानी रहीं. भारत के लिए खेलते हुए कई मेडल और ट्रॉफी टीम को दिलायी हैं. वह चयनकर्ता, कोच, खेल प्रशासक सभी क्षेत्र में हॉकी के लिए काम कर चुकी हैं.

हॉकी के खेल और राजनीति 

अब आप हॉकी का इतिहास झारखंड में इसकी मौजूदा स्थिति समझ गये अब जरूरी सवाल खेल का खेल भी कमाल है। झारखंड की राजनीति में खेल नया नहीं है। पहले वाले मुखिया  भी यही पूछते थे बताओ आज तक ऐसा हुआ है झारखंड में ये वाले भी बार- बार कह रहे हैं। पहली बार... पहली बार.. इतिहास में पहली बार भैया जिस राज्य को हॉकी का नर्सरी कहा जाता है वहां आप खेल के लिए कुछ कर रहे हैं तो आपको चुपचाप करना चाहिए। क्या कर लिया ऐसा सड़क पर मंत्रियों के पोस्टर खेल के नाम पर भरे पड़े हैं। सुना ये भी है कि सिर्फ राजधानी नहीं राज्य के कई हिस्सों में मंत्रियों के पोस्टर चढ़ा दिए गये हैं। खेल मंत्री और मुख्यमंत्री का पोस्टर समझ में भी आता है कि चलो भैया एक मुखिया जी और दूसरे विभाग के मुखिया जी बाकि नेताओं को काहे को प्रमोट कर रहे हो भाई। 

राजनीतिक

इस खेल से उनका क्या लेना देना है। खेल में राजनीतिक का खेल अच्छा नहीं है साहेब। अच्छा साहेब बुरा ना मानों तो एक बार पूछ लूं अपने राज्य में हॉकी के दिग्गज खिलाड़ियों की क्या कमी है.. सच बताओ क्या है कमी। क्या उन खिलाड़ियों की पहचान को मजबूत करने के लिए उनकी तस्वीर पोस्टर में नहीं लगाई जा सकती थी। अच्छा चलो आपको नहीं लगानी थी उनकी तस्वीर तो जब ऐसे वक्त में जहां राज्य में ना सिर्फ देशभर से बल्कि विदेशों से लोग पहुंचे हैं अपने राज्य की पहचान को मजबूत करती जगहों की, लोगों की तस्वीर लग सकती थी या नहीं। खैर अब कहा भी क्या जाए.. आपके नाराज होने का भी डर रहता है हम जैसे लोगों को भी तुम होते कौन हो ज्ञान देने वाले तो साहेब पइसा हमारा भी तो लगा ही होगा ना सरकारी पैसा सरकार का थोड़ी ना होता है, हमारा आम जनता का होता है तो हमरा पइसा आप कहां खर्च कर रहे हैं ये देखने का अगर गलत जगह खर्च कर रहे हैं तो रोकने टोकने का अधिकार तो है ना हमको 
 झारखंड और ओड़िशा 

अच्छा एक बात बताइये हमारी भारतीय टीम की जर्सी पर ओड़िशा के नाम का लेवल देखा है आपने। आप ईमानदारी से बताइये कि भारतीय  महिला हॉकी टीम में या हॉकी में ओड़िशा की भूमिका को समझते तो होंगे आप। जाने दीजिए हम समझाने जायेंगे तो ज्यादा टेक्निकल हो जायेगा बस आप इतना समझिए कि भूखे को पूरा खाना खिलाने वाले ने चुपचाप अपना काम किया और आप एक चम्मच अचार देकर ढिढोरा पीट रहे हैं। 

खैर आपसे उम्मीद भी क्या की जाए अदिवासी महोत्सव के लिए भी आप खुद की पीठ थपथपाते हैं आयोजन अच्छी भी था लेकिन मैं सड़कों पर  आदिवासी महानायकों की तस्वीर ढुढ़ता रहा लेकिन नहीं मिले। पोस्टर आपके, आपके नेताओं से भरे पड़े थे। खैर मैं समझता हूं कि राजनीति में पूरा खेल ही प्रचार और पोस्टरबाजी का है। अगर पोस्टरबाजी से ही चुनाव जीते और हारे जाते होंगे तो आप सही रास्ते पर हैं क्योंकि हमने पहले भी यही पोस्टरबाजी देखी है जो आप कर रहे हैं। बस उम्मीद है खेल जिस भावना से देखा जा रहा है खेला जा रहा है उसका मान, सम्मान और प्रतिष्ठा बची रहे उसमें राजनीति कोई खेल ना करे। बाकि जनता कितनी समझदार है आप जानते ही हैं । इतनी शिकायत के बाद भी दिल से झारखंड को हॉकी के इतिहास में अहम स्थान देने के लिए इस सरकार का धन्यवाद तो किया ही जा सकता है। बस हॉकी के उन महानायकों की तस्वीर रांची और राज्य के दूसरे शहरों पर नजर आती जिन्होंने इस खेल को अपना जीवन दिया तो शायद उन्हें सम्मान देने में यह सरकार सबसे आगे होती। 


नवरात्र में शोक मानती है झारखंज की यह असुर जनजाति, महिषासुर की करते हैं पूजा

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महिषासुर की पूजा 

नवरात्र की आज से शुरुआत हो गयी। आस्था उपवास, पूजा के साथ नव दिन मां दुर्गा के नौ रूपों की पूजा होगी। इस बीच आप झारखंड के कई अखबारों में सिंगल कॉलम में शायद खबर देख पायेंगे कि झारखंड में महिषासुर शहादत दिवस भी मनाया जाता है। अखबार में ना भी देख पायें तो कई ऑनलाइन न्यूज वेबसाइट में तो यह खबर आपको दिखेगी ही। क्योंकि यहां मामला पेज व्यूज का होता है और ऐसी खबरें लोग पढ़ना पसंद करते हैं। 

हम सभी.... शायद सभी बोलना ठीक नहीं होगा तो ज्यादातर लोग  महिषासुर को दैत्य मानते हैं  लेकिन पश्चिम बंगाल, ओडिशा और झारखंड समेत पांच राज्यों में फैली कुछ जनजातियां महिषासुर को एक महान राजा मानती हैं। 

सुषमा खुद को मानती हैं असुर 

कुछ जनजातियां खुद को उनका वंशत भी मानती हैं। 

असुर जनजाति झारखंड के गुमला, लातेहार, लोहरदगा और पलामू जिलों में हैं। असुर और सांथल रीति रिवाजों में महिषासुर की पूजा होती है। दुर्गा पूजा-विजयादशमी हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है लेकिन  झारखंड सहित कई राज्यों में फैली ये जनजाति  शोक मनाती है। इस समाज में मान्यता है कि महिषासुर ही धरती के राजा थे, जिनका संहार छलपूर्वक कर दिया गया. ये जनजाति महिषासुर को 'हुदुड़ दुर्गा' के रूप में पूजती है। 

नवरात्र में शोक मानती है यह जनजाति 

नवरात्र से लेकर दशहरा की समाप्ति तक ये जनजाति शोक में रहती है। इस दौरान किसी तरह का शुभ समझा जाने वाला काम नहीं होता. इस जनजाति के लोग घर से बाहर तक निकलने में परहेज करते हैं


इनकी कथाओं में है कि दुर्गा ने धोखे से महिषासुर को  चाकू मार दिया था, क्योंकि उसे यह वरदान मिला था कि कोई भी आदमी उसे हरा नहीं सकता था। 


इस प्रकार असुर समुदाय महिषासुर की मृत्यु का शोक मनाने के लिए हिंदू कैलेंडर माह आश्विन की पूर्णिमा की रात को इकट्ठा होते हैं। पूजा करते हैं शोक मनाते हैं। 

असुर की पूजा करती है यह जनजाति 

कब होती है असुर पूजा 

आश्विन पूजा या असुर पूजा साल में दो बार मनाई जाती है, एक बार फागुन (मार्च) के महीने में और दूसरी बार आश्विन महीने के दौरान जो सितंबर-अक्टूबर में पड़ता आता है। 

पिछले कुछ सालों से इसकी खूब चर्चा रही है। 2016 में, एक सामाजिक कार्यकर्ता सुषमा असुर, झारखंड के 10 अन्य लोगों के साथ, अपनी पहचान के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए कोलकाता की सड़कों पर उतरीं। उन्होंने कहा, ''मैं पंडाल के अंदर नहीं जाऊंगी, यह हमारे लिए शोक मनाने का समय है।

महिषाशूर शहादत दिवस 2016 में तब सुर्खियों में आया जब केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में विवाद के बाद संसदीय बहस में इसे उठाया। 

कैसे शुरू हुई दुर्गा पूजा 

दुर्गा पुजा के संबंध में जो इतिहास बताता है वो ये कि  18वीं शताब्दी में, 12 लोग हुगली में एक साथ आए और पहली सामुदायिक पूजा (जिसे बारोआरी पूजा के नाम से जाना जाता है) का आयोजन करके त्योहार को सार्वजनिक क्षेत्र में लाया और इस तरह सांस्कृतिक उत्सव का जन्म हुआ जो दुर्गा पूजा में बदल गया। आज देश के कई राज्यों में यहां तक की विदेशों में भी दुर्गा पूजा धूमधाम से मनाया जाता है। इसे बुराई पर अच्छाई की, सत्य पर असत्य की और अंधेरे पर रोशनी की जीत के तौर पर देखा जाता है। 

महिषासुर को राजा मानते हैं यह लोग 

देश के इन राज्यों मे असुर 

झारखंड में  नेतरहाट की पहाड़ियों पर बसे असुर आदिवासी विजयादशमी (दशहरा) को महिषासुर की पूजा करते हैं।  झारखंड के पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल के पुरुलिया ज़िले के काशीपुर प्रखंड में भी होती है. साल 2011 से महिषासुर का शहादत दिवस मनाया जा रहा है। 


गुमला जिला अंतर्गत डुमरी प्रखंड के टांगीनाथ धाम को महिषासुर का शक्ति स्थल मानती है। प्रत्येक 12 वर्ष में एक बार महिषासुर की सवारी भैंसा (काड़ा) की भी पूजा करने की परंपरा आज भी जीवित है। गुमला जिले के बिशुनपुर, डुमरी, घाघरा, चैनपुर, लातेहार जिला के महुआडाड़ प्रखंड के इलाके में भैंसा की पूजा की जाती है।

असुरों की कहानी 

इनकी अपनी कहानी है, अपना तर्क है।  सुषमा असुर बताती हैं कि  महिषासुर का असली नाम हुडुर दुर्गा था. वह महिलाओं पर हथियार नहीं उठाते थे. इसलिए दुर्गा को आगे कर उनकी छल से हत्या कर दी गई। 'मैंने स्कूल की किताबों में पढ़ा है कि देवताओं ने असुरों का संहार किया. हमारे पूर्वजों की सामूहिक हत्याएं की गयी हैं 'हमारे नरंसहारों के विजय की स्मृति में ही हिंदू दशहरा जैसे त्यौहार मनाते हैं. इसलिए, हम अगर महिषासुर की शहादत का पर्व मनाएं, तो इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए.''

शिबू सोरेन ने कहा था रावण आदिवासियों के पूर्वज 

यह मामला सिर्फ विश्वास, आस्था और आदिवासी और स्वर्ण के बीच का नहीं है बल्कि राजनीतिक भी है,  साल 2008 की विजयादशमी में तत्कालीन मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने रांची के मोराबादी मैदान में होने वाले रावण दहन के कार्यक्रम में शामिल होने से इनकार कर दिया था। उनका कहना था कि रावण आदिवासियों के पूर्वज हैं. वे उनका दहन नहीं कर सकते हालांकि हेमंत सोरेन कई बार दुर्गा पूजा, रावण दहन के कार्यक्रम में शामिल होते रहे। 

 झारखंड और आसपास के जिलों तक सीमित नहीं है, इसमें शामिल होने के लिए देश के कोने-कोने से लोग आते हैं उत्सव पहले से मनाया जाता रहा लेकिन   2011 से इसका आयोजन बड़े स्तर पर होने लगा है। 

कई राज्यों में मनाया जाता है महिषासुर शहादत दिवस 

झारखंड में 26 हजार असुर 

एक रिसर्च रिपोर्ट यह भी बताती है कि झारखंड और बंगाल में असुर आदिवासी प्रजाति के 26 हजार लोग हैं, जो महिषासुर को अपना देवता मानते हैं।

गुमला जिला अंतर्गत डुमरी प्रखंड के टांगीनाथ धाम को महिषासुर का शक्ति स्थल मानती है. प्रत्येक 12 वर्ष में एक बार महिषासुर की सवारी भैंसा (काड़ा) की भी पूजा करने की परंपरा आज भी जीवित है. गुमला जिले के बिशुनपुर, डुमरी, घाघरा, चैनपुर, लातेहार जिला के महुआडाड़ प्रखंड के इलाके में भैंसे की पूजा की जाती है। 

असुरों का जिक्र 

ऋग्वेद, ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद्, महाभारत आदि ग्रंथों में कई स्थानों पर असुर शब्द का उल्लेख हुआ है. मुंडा जनजाति समुदाय की लोकगाथा 'सोसोबोंगा' में भी असुरों का उल्लेख मिलता है.

असुर का रिश्ता  मोहनजोदड़ो और हड़प्पा संस्कृति से 

देश के चर्चित एथनोलॉजिस्ट सतीष चंद्र रॉय (  एससी राय )ने लगभग 85 साल से भी पहले  झारखंड में करीबन 100 स्थानों पर असुरों के किले और कब्रों की खोज की थी. असुर हजारों सालों से झारखंड में रहते आए हैं. असुरों को मोहनजोदड़ो और हड़प्पा संस्कृति से संबंधित बताया था। इतिहास जो भी कहता हो अहम मान्यता है। अब सवाल है कि हम मानें क्या सच क्या है। आस्था में कितने भी तर्क दे लें सबकी अपनी आस्था है, विश्वास है सबको उस पर चलने का अधिकार है। 

love jihad case : तारा शाहदेव की पूरी कहानी- खिलाया प्रतिबंधित मांस

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झारखंड लव जिहाद, रंजीत कोहली और तारा शाहदेव 


इस सप्ताह के एपिसोड में 9  साल से चली आ रही एक लंबी कानूनी लड़ाई की कहानी जो मीडिया की सुर्खियों में रही। एक पावरफुल व्यक्ति तो सत्ता, शासन और कोर्ट के इतने करीब रहा कि उसकी गिरफ्तारी के बाद उस पर कई गंभीर आरोप लगे।


9 साल बाद   राष्ट्रीय स्तर की शूटर रह चुकी तारा शाहदेव को न्याय मिला है। तारा शाहदेव का मामला इसलिए भी अहम है क्योंकि देश में लव जिहाद जैसे शब्द जिन घटनाओं की वजह से गढ़े गये या बने उनमें से एक ये भी मामला शामिल था। तारा शाहदेव ने खुद कई इंटरव्यू में कहा कि उन्हें नहीं पता था कि लव जिहाद जैसा कोई शब्द होता है उन्हें मीडिया से पता चला।

दूसरी बड़ी वजह है कि 9 साल से चली आ रही एक लंबी लड़ाई अंजाम तक पहुंची है। तीसरी और सबसे खास वजह यह समझने के लिए कैसे एक रसूकदार आदमी जिसकी शादी में राज्य के कई दिग्गज नेता अधिकारी पहुंचे थे। रंजीत कोहली ऊर्फ रकीबुल हसन पावरफुल था लेकिन अंजाम क्या हुआ ?  सत्ता, पावर का नशा आपके सारे पाप नहीं धो देता। झारखंड में उदाहरण तो भरे पड़े हैं।  इस मामले में रकीबुल ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को गवाह बनाया था।  आज इस मामले को शुरू से समझेंगे पूरी कहानी जानेंगे। कहानी की शुरुआत से लेकर अंजाम तक

रकीबुल से कहां मिली तारा
इस कहानी की शुरुआत मानी जानी चाहिए जब रंजीत कोहली ऊर्फ रकीबुल हसन की तारा शाहदेव से मुलाकात हुई।  रांची के होटवार स्टेडियम में दोनों मिले। बताया जाता है कि तारा शाहदेव की मां के निधन के बाद ही रंजीत कोहली उसके जीवन में आ गया। तारा मां के निधन के बाद टूटी थी तो रंजीत ऊर्फ रकीबुल उसका सहारा बना। रंजीत उसे शादी के लिए प्रभावित करने के कई हथकंडे अपनाता था. वह अफसरों के साथ महंगी गाड़ियों में शूटिंग रेंज पर आता था। तारा ने शादी के लिए हां कर दिया।

शादी के दूसरे दिन ही धर्म बदलने का दबाव
 7 जुलाई, 2104 को तारा शाहदेव की शादी हुई।  शादी शहर के रेडिसन ब्लू होटल में रंजीत सिंह कोहली से हुई। शादी के बाद रंजीत उसे मेन रोड स्थित महावीर टावर के पीछे ब्लेयर अपार्टमेंट के फ्लैट नंबर आर-05 में लेकर रहता था। शादी के बाद   ससुराल में एक दिन मंत्री हाजी हुसैन अंसारी के यहां से इफ्तार पार्टी का निमंत्रण मिला। जिसमें जनाब रकीबुल हसन खान के नाम का संबोधन था। तारा को पता चला कि जिस व्यक्ति से उसकी शादी हुई है वह मुसलमान है। यहां से उस पर अत्याचार शुरू हुए उसे धर्म परिवर्तन के दबाव दिया जाने लगा। मारपीट शुरू हुई।  

कुत्ते से कटवाया गया
तारा ने कई इंटरव्यू में बताया है कि कैसे उसके साथ अत्याचार हुआ।  रंजीत 20-25 हाजी को लेकर घर पहुंच गया और जबरन धर्म परिवर्तन के लिए दबाव देने लगा। इस दौरान विरोध करने पर उसके साथ बुरी तरह मारपीट की गई। कई बार कुत्ते से कटवाया गया, एक दिन वह किसी तरह घर से भाग निकली थाने में शिकायत की मीडिया वालों से बात कर ली। मामला सबके सामने आ गया।
प्रतिबंधित मांस खिलाया 
तारा शाहदेव मामले में सीबीआई की ओर से दायर चार्जशीट में बताया गया कि  रंजीत सिंह कोहली उर्फ रकीबुल हसन ने साजिश के तहत तारा से शादी की. शादी के दूसरे दिन ही यानि  आठ जुलाई 2015 को दोनों की निकाह पढ़ाने की कोशिश की गयी. निकाह पढ़ाने के समय झारखंड हाइकोर्ट के पूर्व रजिस्ट्रार (निगरानी) मुश्ताक अहमद भी मौजूद थे. मेहर की रकम भी उन्होंने दी. शादी के चार-पांच दिन बाद मुश्ताक अहमद के घर पर इफ्तार पार्टी में तारा शाहदेव को जबरन प्रतिबंधित मांस खिलाया गया।

कोर्ट की लंबी लड़ाई
झारखंड हाईकोर्ट के आदेश पर वर्ष 2015 में सीबीआई ने मामले को टेकओवर करते हुए जांच शुरू की थी. जांच पूरी होने के बाद आरोपियों के खिलाफ वर्ष 2018 में चार्जशीट दायर की गयी। इस दौरान तारा शाहदेव को रंजीत कोहली से तलाश भी मिल गया। मामला 9 साल लंबा चला और अंजाम  CBI कोर्ट ने रंजीत कोहली उर्फ रकीबुल को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और पचास हजार का जुर्माना लगाया गया है. रंजीत कोहली, IPC की धारा 120B, 376, 323, 298,506 और 496 में दोषी पाया गया है. वहीं, कौशल रानी को IPC की धारा 120B, 298, 506 और 323 में दोषी पाया गया है. कौशल रानी को दस साल की सजा और पचास हजार का जुर्माना लगाया गया है. मुश्ताक अहमद को IPC की धारा 120B और 298 में दोषी पाया गया है. मुश्ताक अहमद को 15 साल सश्रम कारावास की सजा और पचास हजार जुर्माना लगाया गया है। 

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पर चार गंभीर मामले : आय से अधिक संपत्ति,जमीन घोटाला सहित दो गंभीर आरोप

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मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पर रेप का केस 


मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन चौतरफा घिरे हैं। जमीन घोटाला मामले में प्रवर्तन निदेशायल ने अबतक सीएम को पांच बार समन किया है। मुख्यमंत्री अबतक पूछताछ में शामिल होने ईडी दफ्तर नहीं पहुंचे। मामला अब कोर्ट में है। हेमंत सोरेन पर एक नहीं चार- चार ऐसे मामले चल रहे हैं जिसमें सीएम फंस सकते हैं। इस वीडियो में हम मुख्यमंत्री पर चलने वाले अबतक के बड़े मामलों का जिक्र करेंगे। समझेंगे कि उन पर कौन- कौन से और कितने गंभीर आरोप हैं।

मुख्यंमत्री हेमंत सोरेन पर रेप का केस

लोकसभा में सांसद निशिकांत दुबे ने कई बार कहा कि झारखंड के मुख्यमंत्री पर बलात्कार का गंभीर आरोप है। बॉलीवुड की स्ट्रगलर अभिनेत्री बताने वाली एक युवती ने कथित तौर पर आरोप लगाया है कि हेमंत सोरेन ने साल 2013 के 5 सितंबर को मुंबई के एक फाइव स्टार होटल में उनके साथ बलात्कार किया था। उन्हें  जान से मारने की धमकी दी थी।  45 दिन बाद उस युवती ने इस कथित घटना की शिकायत मुंबई के एक मेट्रोपोलिटन कोर्ट में की, लेकिन इसके 9 दिन बाद ही उन्होंने अपनी शिकायत वापस ले ली।  मामला बंद हो गया। हेमंत सोरेन उस दौरान भी झारखंड के मुख्यमंत्री थे। युवती का 8 दिसंबर, 2020 का एक पत्र सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है, जिसमें उन्होंने बांद्रा (मुंबई) पुलिस से इस पूरे मामले की शिकायत करते हुए इसकी फिर से जांच कराने की मांग की है। मामला कोर्ट में है।

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पर लगा यह आरोप बेहद गंभीर है। सांसद निशिकांत दुबे ने इस संबंध में सदन में रिबिका हत्याकांड के समय बयान दिया था जिसे मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की तरफ से आपत्ति जाहिर करते हुए हटा दिया गया। इस संंबंध में हमने ताजा स्थिति जानने के लिए केंद्रीय महासचिव और पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता सुप्रियो भट्टाचार्य से संपर्क किया उन्होंने कहा कि अभी इस मामले की कोई जानकारी नहीं है। 

इस संबंध में कब क्या हुआ यहां समझा जा सकता है। 


  • साल 2013 में महिला ने हेमंत सोरेन पर रेप का आऱोप लगाया। 
  • 2013 में ही आरोप लगाने वाली महिला ने बांद्रा कोर्ट में याचिका दायर करते हुए कहा वह  दायर याचिका को वो वापस लेना चाहती हैं.
  • कोर्ट ने महिला को अपनी याचिका वापस लेने की अनुमति दे दी थी.
  •  साल 2020 में उसी महिला ने बॉम्बे हाईकोर्ट में एक और याचिका दायर की. महिला ने याचिका में कहा कि हाल ही में उसका एक एक्सीडेंट हुआ था और उसे शक है कि इसके पीछे सोरेन हैं
  • -दिसंबर 2020 में महिला ने कोर्ट में एक और याचिका दायर की. उसने कोर्ट से कहा कि वो केस में अपने वकीलों को बदलना चाहती है.
  • 25 दिसंबर 2021 को महिला की तरफ से केस के नए वकीलों ने एक और याचिका की. इस याचिका में कोर्ट से कहा गया कि वो हेमंत सोरेन के खिलाफ ये याचिका भी वापस लेना चाहती है.
  • कोर्ट ने महिला की इस याचिका को अस्वीकार कर दिया. कोर्ट ने कहा, इस स्टेज में केस वापस नहीं हो सकता.
  •  जनवरी 2021 में ही इस मामले में दो और याचिकाएं दायर हुई। 
  • पहली याचिका झारखंड के पत्रकार (अब बाबूलाल मरांडी के मीडिया सलाहकार) सुनील कुमार तिवारी ने दाखिल किया। दूसरी याचिका स्त्री रोशनी ट्रस्ट की तरफ से दायर हुई।  इन दोनों याचिकाओं में कोर्ट से अपील की गई थी कि महिला को केस वापस ना लेने दिया जाए। 
  • मामला अब ठंडे बस्ते में है। इसे लेकर स्थिति साफ नहीं है कि महिला मुख्यमंत्री पर एक्सीडेंट कराने की साजिश से जुड़ा मामला दर्ज कराया है। 


 

आय से अधिक संपत्ति का मामला

लोकपाल में आय से अधिक संपत्ति का मामला पूरे परिवार के खिलाफ चल रहा है।  झामुमो सुप्रीमो और राज्यसभा सांसद शिबू सोरेन और उनके रिश्तेदारों के नाम पर आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने की शिकायत लोकपाल में हुई है। यह शिकायत 5 अगस्त 2020 को दायर की गयी थी। लोकपाल को किए गए शिकायत में बताया गया है कि शिबू सोरेन और उनके परिजनों ने झारखंड के सरकारी खजाने का दुरुपयोग किया है। भ्रष्टाचार करते हुए जो राशि अर्जित की है, उससे अनेक संपत्तियां बनायी हैं। इन संपत्तियों में कई बेनामी आवासीय और कमर्शियल परिसंपत्तियां भी हैं।

जांच के खिलाफ झामुमो सुप्रीमो और राज्यसभा सांसद शिबू सोरेन ने दिल्ली हाईकोर्ट का रूख किया था। आज दिल्ली हाईकोर्ट में इस मामले को लेकर चल रही सुनवाई पूरी हो गई है। दिल्ली हाईकोर्ट ने इस मामले में सभी पक्षों की दलीलों को सुना और फैसले को सुरक्षित रख लिया है।

आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के मामले की शिकायत पर सुनवाई करते हुए लोकपाल की फुल बेंच ने 15 सितंबर 2020 को सीबीआई को जांच करने को कहा 1 जुलाई 2021 को सोरेन परिवार की संपत्ति का पूरा ब्यौरा, उनके आयकर रिटर्न पर लोकपाल को रिपोर्ट सौंपी थी। इसके आधार पर लोकपाल ने शिबू सोरेन और परिवार के सदस्यों को नोटिस भेजकर उनका पक्ष मांगा था। इसके बाद सोरेन परिवार के सदस्यों से मिले जवाब के आलोक में सीबीआई ने अंतिम पीई रिपोर्ट 29 जून 2022 को लोकपाल के यहां दाखिल की।


अवैध खनन मामला  

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के बेहद करीबी  पंकज मिश्रा  के घर से हेमंत सोरेन की बैंक पासबुक और उनकी साइन की हुई चेक बुक मिली थी। एजेंसी का ये भी दावा है कि अब तक उसने अवैध खनन के सिलसिले में एक हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की हेराफेरी होने की पहचान की है।

साहिबगंज में तीन जगहों से फेरी सेवा के माध्यम से पत्थरों की अवैध ढुलाई कराई गई। इनमें साहिबगंज के गरमघाट से बिहार के कटिहार का मनीहारी घाट, समदा घाट से मनीहारी घाट व राजमहल घाट से बंगाल के मानीकचक घाट में ढुलाई कराने की बात कही गई है। बोकारो के याचिकाकर्ता तीर्थ नाथ आकाश और अनुरंजन अशोक ने तीन सितंबर को मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सहित 20 आरोपियों के खिलाफ स्थानीय मुफ्फसिल थाने में ऑनलाइन शिकायत दर्ज कराई है।


जमीन घोटाला

रांची में सेना की कब्जे वाली तकरीबन 4।55 एकड़ जमीन की खरीद-बिक्री गलत तरीके से तैयार किए गए कागजात के आधार पर की गई थी। इस मामले का खुलासा रांची के तत्कालीन आयुक्त नितिन मदन कुलकर्णी ने अपनी एक जांच रिपोर्ट में की थी।  इस रिपोर्ट में कहा गया है कि फर्जी नाम और पते के आधार पर सेना की जमीन पर अवैध कब्जा किया गया है। रांची नगर निगम ने मामले की शिकायत दर्ज कराई। इसके बाद ईडी ने इसी प्राथमिकी को इसीआईआर के रूप में दर्ज कर जांच शुरू की।

घोटाले में ईडी इन दिनों रांची के बड़े कारोबारी विष्णु अग्रवाल को रिमांड पर लेकर पूछताछ कर रही है। इसके अलावा जेल में बंद झारखंड के चर्चित पावर लायजनर प्रेम प्रकाश से भी बीते हफ्ते ईडी ने दो दिनों तक पूछताछ की। सूत्रों के मुताबिक इस घोटाले में ईडी को कुछ ऐसे साक्ष्य हाथ लगे हैं, जिसके आधार पर वह सीएम से पूछताछ करना चाहती है।

आगे क्या होगा

राजनीतिक बयानबाजी औऱ आरोप प्रत्यारोप एक तरफ लेकिन ये कुछ ऐसे मामले हैं जो अब भी कोर्ट में हैं। कुछ की जांच अब भी जारी है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के लिए यह चार मामले गले में फंसी हड्डी की तरह है जिन्हें निगलना या थूकना दोनों मुश्किल पड़ रहा है।


Travelogue Ranchi To Nepal By Road: सपना लद्दाख का था पूरा नेपाल हो रहा था

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यात्रा शुरू 

 
रोड ट्रीप की योजना एक दिन की नहीं होती, आप कई सालों से इसके लिए योजना बना रहे होते हैं. हमारे साथ थोड़ा अलग था, हमने कभी लद्दाख से कम दूरी की रोड ट्रीप पर विचार नहीं किया. नेपाल कुछ महीने पहले ही हमारी लिस्ट में जुड़ा था. हम तो लद्दाख से नीचे सोचते ही नहीं थे. चाय की दुकान पर बैठे- बैठे उदय शंकर झा के साथ अचानक यह योजना बनायी. छुट्टी के लिए आवेदन कर दिया और अब दिन और तारीख तय हो गयी. 3.11.2017 यही तारीख थी जिस दिन हमारी यात्रा शुरू हो रही थी. कोई तैयारी नहीं, ना कपड़े धुले थे, ना तबीयत अच्छी थी. चार दिनों से खांसी और सरदी ने पहले ही पूरी योजना को ठंडे बस्ते में डालने का इशारा कर दिया था. हम उसके इशारे को नजरअंदाज करके गंदे कपड़े और खराब तबीयत के साथ यात्रा के लिए तैयार थे.

70 की स्पीड में जब आगे वाले ट्रक ने अचानक मारी ब्रेक  

रांची से सुबह सात बजे जब बाइक स्टार्ट हुई,तो महसूस हुआ कि इस दिन का इंतजार सालों से था. आज रोड ट्रीप का सपना पूरा हो रहा था. इस सफर के लिए भी कितना लंबा सफर तय करना पड़ा था. किसी सपने के पूरा होने का अहसास कई सालों के बाद महसूस हो रहा था. शुरूआत धीमी थी, रांची पीछे छूटा, रामगढ़, हजारीबाग, बरही होते हुए गया पहुंचे. गया से बुलेट की स्पीड थोड़ी बढ़ी क्योंकि अब दिन चढ़ने लगा था. अभी थोड़ी दूर ही निकला था. मेरे आगे एक ट्रक 70 की स्पीड में था लेकिन ये स्पीड मेरी रफ्तार कम कर रही थी. मैंने उसे ओवरटेक करने के लिए स्पीड बढ़ायी. जैसे ही स्पीड बढ़ी ट्रक ने अचानक इमरजेंसी ब्रेक लगा दिया. मैं ट्रक के ठीक पीछे था .

पहली दुर्घटना 

ब्रेक लगाया लेकिन बाइक की स्पीड कम हुई ,रूकी नहीं, बाइक सीधे ट्रक से जाकर भिड़ गयी. बाइक की हेडलाइट, शॉकर , स्पीडो मीटर सब टूट गये. हम ट्रक वाले को आवाज देते रहे लेकिन उसने फिर रफ्तार पकड़ ली. इससे पहले की हम अपने नकुसान का आकलन करते ट्रक दूर निकलने लगा था . मैंने बाइक स्टार्ट की, गुस्से में ट्रक को दोबारा ओवरटेक किया. आगे जाकर बीच रास्ते पर गाड़ी रोकककर खड़ा हो गया. ट्रक को मजबूरन रूकना पड़ा. मैं गुस्से में ड्राइवर के पास गया, तो देखा एक 70- 75 साल के बुजुर्ग बड़े प्यार से पूछ रहे हैं का होलवा बहुआ ( क्या हो गया बाबू) उनकी उम्र और हल्की आवाज ने मेरा गुस्सा कम कर दिया था.

लड़ते तो किससे 

मैंने बाइक की तरफ इशारा करते हुए कहा, देखिये क्या किया है आपने. उन्होंने कहा का करती हल हमरो सामने अचानक टैंपू आ गेल तो रोके के परल ( क्या करता मेरे सामने भी अचानक ऑटो आ गया रोकना पड़ा) . आपने हमारी आावाज तक नहीं सुनी हम चिल्लाते रहे. मैंने गौर किया कि भीड़ जमा हो गयी है, कई लोग उन्हें डांटने लगे हैं. कुछ लोग बोल रहे हैं पैसा भरिये पूरा. मैंने भी कहा, इतना नुकसान हो गया इसकी भरपाई कौन करेगा चलिये पैसा निकालिये या कहीं बनाइये पूरा. अब मैं आपको ये नहीं बताऊंगा कि उन्होंने आगे क्या कहा, बस आप अंदाजा लगा लीजिए की उनके आगे की लाइन क्या होगी?. आपको बस इतना इशारा कर सकता हूं कि इस तरह की घटना में 90 फीसद ट्रक, ऑटो ड्राइवर वही लाइन दोहराते हैं. मैंने उनसे आगे बढ़ने का इशारा किया और हिदायत दी कि आगे ध्यान से चलाइये मैं जाने दे रहा हूं सभी जाने नहीं देंगे.

सब टूटा था बाइक भी और हम भी 

रोड ट्रीप के कुछ घंटों के बाद ही ऐसी घटना हुई थी. गाड़ी की हेडलाइट और स्पीडो मीटर टूटा था, हमारी हिम्मत नहीं. हां इस दुर्घटना ने राइडिंग का मजा थोड़ा कम जरूर कर दिया था. पटना पहुंचे, तो पहले बाइक बनवायी. बाइक की हेडलाइट बनी तो लगा जैसे हमारा जोश भी ठोक पीटकर ऊपर वाले ने ठीक कर दिया. दोबारा वही उत्साह हालांकि अब स्पीड कम हो गयी थी. पटना , वैशाली फिर सीतामढ़ी. झारखंड से होते हुए जब आप बिहार में प्रवेश करेंगे. आपको वहां की हवा बता देगी बेटा, बिहार में हो. बीच डिवाइडर पर सूखते गोइठे, बैलगाड़ी से लादकर धान लाते किसान के माथे पर बंधा मुरेठा . साइकिल पर भोजपुरी गाने बजाकर चलता स्कूली बच्चा, जिसका मोबाइल चीख- चीख के अपना परिचय दे रहा होता है. हूं, तो मैं चाइना का लेकिन ये लहरिया काटकर साइकिल चला रहा लड़का 18 घंटे बजाकर बता देता है, बेटा बिहारी के हाथ में हो खराब कैसे हो जाओगे बे.

बरही से डोभी तक का खराब रास्ता बताता है कि बिहार आने की राह आसान नहीं है. .डोभी की रबड़ी बिहारी स्वाद से परिचय करा देती है, जो कई सालों से भूल था. पटना से होते हुए हाजीपुर - वैशाली का पूरा रास्ता बिहार के गौरवपूर्ण इतिहास और परंपरा का गर्व महसूस कराता है. इन रास्तों पर आखें सड़क के किनारे लगे पर्यटन विभाग के कई प्रचार बोर्ड पर जाता है, जो मजबूर करता है कि आप वैशाली घूम लीजिए. मंजिल तय थी सीतामढ़ी. वैशाली घूम चुका हूं इसलिए हैंडिल उस तरफ नहीं मुड़े.

बोर्डर क्रॉस करने का रोमांच 

सीतामढ़ी से निकलकर अब नेपाल में प्रवेश करना था. पहले दिन लगभग 700 किमी मोटरसाइकिल चलाने के बाद भी सुबह उठा, तो थकान कम बोर्डर प्रवेश करने का रोमांच ज्यादा था. सीतामढ़ी के बाद गौर बोर्डर होते हुए नेपाल में प्रवेश हुआ तो पहला भ्रम टूटा . किसी देश के बोर्डर को लेकर आपके दिमाग में क्या छवि होगी ? जाहिर है, लंबी काटें की तारें, कड़ी सुरक्षा, चेकपोस्ट, खतरनाक चेकिंग जहां कपड़े तक उतरवा लिये जाते हैं, एक - एक सामान की जांच. इस छवि के साथ कब बोर्डर पार कर गया पता नहीं चला. आगे बढ़कर चाय की दुकान पर रूका, पूछा बोर्डर कितनी दूर है.

गले में लाल रंग का गमछा लपेटे चायवाला ने कहा, अरे पिछेही ना छोर आये बोर्डर. गारी का पेपर बनवाये कि नहीं... ये सुनकर चाय गले से नीचे कहां उतरती . बाइक पीछे मोड़कर गाड़ी की स्पीड बढायी, तो देखा सड़क पर कुछ टीन के बड़े डब्बे के साथ हमारी खांकी से अलग वर्दी पहने कुछ पुलिस वाले खड़े थे. मैं सिर्फ अपनी बनायी छवि के कारण ही बोर्डर पार कर गया था.

गाड़ी के पेपर दिखाकर हमने अंदर प्रवेश की अनुमति ली. इसके लिए हमें 300 रुपये देने पड़े. मैं यकीन नहीं कर पा रहा था कि नेपाल में हूं. महसूस हुआ जैसे बिहार के किसी दूरदराज इलाके से गुजर रहा हूं . चाय की कसर बाकी थी, सोचा नेपाल के चाय का स्वाद अलग होगा, ज्यादा चीनी होगी या ज्यादा चाय की पत्ती या ग्रीन टी, कुछ तो अलग मिलेगा लेकिन यहां तो स्वाद भी वहीं और चर्चा भी अपने चाय की दुकान वाली . दुकान पर चाय को राजनीतिक तौर पर और मजबूत बनाने वाले हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चर्चा थी.

मोदिया खाली साफे सफाई में लगल रहतिई कि कुछ कामो करतई . मैं ऐसे वक्त में नेपाल में था.जब नेपाल में चुनाव होने वाले हैं लेकिन चाय की दुकान पर चर्चा भारतीय राजनीति की थी. नेपाल में राजनीति पर चर्चा हो वो भी बिहार की भाषा में, तो हम खुद को कैसे रोकते हम भी उस मंडली में शामिल हो गये थे...


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