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Saranda Ground Story : टपकती छत के नीचे रात बिताने को मजबूर सेल के सारंडा छात्रावास में बच्चे

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2021

/ by मेरी आवाज




Saranda Ground Story  सारंडा में बहुत बड़ी खनन कंपनियां काम करती है, वहां से करोड़ों के खनिज निकलते हैं, सवाल है बदले में वहां के स्थानीय लोगों को क्या मिलता है ? 

हमारे पास वक्त कम था लेकिन हमने इसकी पड़ताल करने की कोशिश की. सेल वहां कंपनी सीएसआर के तहत 20 बच्चों का खर्च उठाती है और उन्हें 12 वीं तक निशुल्क शिक्षा देती है. पहली से लेकर 12 वीं तक नहीं. 9 वीं क्लास से लेकर 12 वीं तक. इसके लिए भी परीक्षा होती है, अच्छे विद्यार्थियों का चयन किया जाता है जो पढ़ने में तेज हैं. मुझे पता नहीं कि इस टेस्ट के अलावा आर्थिक स्थिति का कितना प्रतिशत योगदान है इन बच्चों के चयन में लेकिन सेल सीएसआर के तहत यह काम कर रही है. 

ज्यादातर लोग सीएसआर का अर्थ समझते हैं जो नहीं समझते उनके लिए विस्तार से बता रहा हूं. सीएसआर यानी कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी. सीएसआर को अनिवार्य करने वाला भारत दुनिया का पहला देश है.  भारत में सीएसआर का कानून 1 अप्रैल 2014 से पूरी तरह से लागू हो गया है. यह कानून सिर्फ भारतीय कंपनियों पर ही लागू नहीं होता है बल्कि वह सभी विदेशी कंपनियों के पर लागू होता है जो भारत में कार्य करते हैं. सीधा- सीधा समझें तो यह जरूरी भी है और मजबूरी भी. 

अब सवाल है कि कंपनी को इसके लिए कितना खर्च करना होगा और नियम क्या कहते हैं, कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी को कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 135 के तहत कंपनी को जिसका सालाना नेटवर्थ 500 करोड़ों रुपए या उसका सालाना इनकम 1000 करोड़ रुपए या उनका वार्षिक प्रॉफिट 5 करोड़ का हो तो उनको सीएसआर पर खर्च करना जरूरी होता है. यह जो खर्च होता है उनके 3 साल के एवरेज प्रॉफिट का कम से कम दो प्रतिशत तो होना ही चाहिए. 



अब ऐसा नहीं है कि सेल सिर्फ सीएसआर के तहत सिर्फ यही करती है लेकिन 20 बच्चों को शिक्षा देने के लिए यहां सारंडा सुवन छात्रावास है. इसी छात्रावास में स्पायर एनजीओ भी काम करती है जिस पर जिम्मेदारी है कि वह बच्चों का भोजन तैयार करे, साथ ही यहां उन पर भी बच्चों की जिम्मेदारी है. यहां वैसे बच्चों को लेकर आया जाता है, जिनकी देखरेख कोई नहीं करता जो नशा करते हैं या किसी बुरी आदत के शिकार है. 

यहां पढ़ रहे बच्चे सिर पर छत होने के बावजूद भी बरसात में टपकते छत के नीचे सोने को मजबूर हैं. सेल यहां एक दिन के खाने के लिए एक बच्चे पर 60 रुपये का खर्च करती है. आप अंदाजा लगा लीजिए कि इन 60 रुपयों में बच्चों को कितना प्रोटीन, विटामिन और पोषक तत्व मिलते होंगे. 



स्पायर एनजीओ के पास दो हॉल है जहां लगभग 30 बच्चे हैं. सेल की तरफ से चुने गये बच्चों के  पास 8 कमरे हैं. सेल की तरफ से बच्चों का चयन 9वीं कक्षा में होता है, दो साल के लिए यहां बच्चों को निशुल्क शिक्षा मिलती है. स्पायर एनजीओ के बच्चे यहां ठंड में, बरसात में इस टूटी छत के नीचे रहते हैं. यहां पढ़ाने वाले टीचर भी इसी हाल में बच्चों के पास ही बिस्तर लगाकर सोते हैं. 



मैंने यहां बच्चों से बात की ईमानदारी से कहूं तो यहां के ज्यादातर बच्चे शिक्षक बनना चाहते हैं, कारण स्पष्ट है कि बच्चे शायद शिक्षा के महत्व को समझते हैं लेकिन सेल जैसी बड़ी कंपनी यहां सीएसआर के नाम पर जितनी बेहतर शिक्षा और सुविधा इन बच्चों को दे सकती है, शायद नहीं दे पा रही. बाहर से देखने पर यहीं लगता है कि सेल बच्चों की पढ़ाई और उनके विकास के लिए बेहतर काम कर रही है लेकिन अंदर की कमियां शायद इन चारदिवारी के बाहर नहीं निकल पाती. 

अगली कड़ी में पढ़िये- सेल का आदर्श गांव सच में कितना आदर्श है.


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