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पत्रकारिता में सर या भैया ?

शनिवार, 12 नवंबर 2022

/ by मेरी आवाज
journalism ethics relation and career growth

हम छोटे शहर के लोगों में एक कमी होती है, जो हमें आज के प्रतिस्पर्धा वाली दौड़ में खींच कर नीचे ले आती है। वह कमी है लगाव...


हम रिश्ते इतने दिल से बना लेते हैं कि शोले फिल्म के उस डॉयलॉग को भी भूल जाते हैं, जिसमें बसंती कहती है, घोड़ा घास से दोस्ती कर लेता, तो खायेगा क्या ? छोटे शहर में बैठे हम जैसे घोड़ों की दोस्ती अगर घास से हो गयी, तो भूखे मर जायेंगे लेकिन घास खायेंगे नहीं। 

यही लगाव हमें आज की दौड़ में जीतने नहीं देती। छोटे शहरों की पत्रकारिता में एक चलन है, अपने से वरिष्ठ साथियों को भैया कहकर संबोधित करना। जब यह संबोधन व्यवसायिक नहीं है, तो फिर रिश्ते भी कैसे व्यवसायिक रहेंगे। जिन वरिष्ठों को भैया कहकर संबोधित करते हैं वो बड़े भाई की तरह व्यवहार भी करते हैं। हमने भी यही सीखा। जुनियर ने भी जब भैया कहकर संबोधित किया, तो उसे भी छोटा भाई मान बैठे। इसी तरह रिश्ते बनते गये..

छोटे शहरों में लगाव सिर्फ लोगों से  नहीं होता कंपनी से भी हो जाता है क्योंकि संस्थान सिर्फ बिल्डिंग नहीं है, उसमें काम करने वाले लोग हैं। बाहर किसी ने आपके संस्थान पर कोई टिप्पणी कर दी, तो लगता है जैसे अपने घर पर कर दी है। 

बचाव भी उसी  रिश्ते  के आधार पर होता है। लंबे समय से किसी एक संस्थान में काम करने के अपने फायदे और नुकसान है। इसमें दो तरह की संभावनाएं हैं, आप उस संस्थान के काम करने के तरीके को इतनी अच्छी तरह समझते हैं कि काम में कोई परेशानी ही नहीं होती। आपसी संबंध भी इतने मजबूत हो जाते हैं कि आपको कई अवसर मिलते हैं, संस्थान के वरिष्ठ आपके काम के तरीके को समझते हैं। 

जिन्हें आप भैया कहकर संबोधित करते हैं और जिस रिश्ते की डोर पकड़े आप ढलान पर खड़े हैं। उस डोर का सिरा भी कहीं बंधा होता है। वो बड़ा भाई भी जिसे संस्थान के ऊपर बैठे लोगों को काम का हिसाब देना पड़ता है क्योंकि भैया वाला रिश्ता सिर्फ पत्रकारिता तक है, मैनेजमेंट के स्तर पर नहीं। बहुत कम लोग समझ पाते हैं कॉरपोरेट और पत्रकारिता के बीच के इस फर्क को।

आप अपने काम और दफ्तर की जिम्मेदारियों  को निजी रिश्तों के थैले में लेकर चलते हैं जबकि होती वह विशुद्ध कॉरपोरेट हैं। खैर  इन सब के बीच आप अपनी बढ़त, परिवार की जिम्मेदारियों को धीरे- धीरे नजरअंदाज करने लगते हैं। 

भूलने लगते हैं कि इस ऑफिस के परिवार के इतर भी एक परिवार है, जो दफ्तर के रिश्तों से नहीं आपकी कमाई के पैसों से अपना पेट भरता है। आप घास से दोस्ती करके भूखे रह लीजिए लेकिन उसी घास से आपके परिवार वालों का पेट भरना है, तो उन्हें कैसे रोकेगें आप ? 

ये ठीक उसी तरह है, जैसे मेंढक पानी में बढ़ते तापमान के साथ अपने शरीर को तैयार करता है लेकिन जब पानी ज्यादा गर्म हो जाता है, तो उसमें इतनी क्षमता नहीं रहती कि वो पानी से बाहर निकल सके और मर जाता है। इसी लगाव और रिश्तों की वजह से आप संस्थान नहीं बदलते और आपकी हालत इसी मेंढक की तरह हो जाती है। छोटे शहरों में बेहद कम संस्थान हैं, जो समय के साथ आपकी काम के आधार पर आपको तरक्की देते हैं। कंपनियां हर साल अपने कर्मचारियों का वेतना बढ़ाती हैं लेकिन इसमें भी तमाम तरह के फार्मूले काम करते हैं, जो कई बार सिर्फ आपके काम और मेहनत के आधार पर तय नहीं किये जाते। कई बार यह रिश्ता किसी किसी के काम भी आ जाता है ,तो कई बार यही रिश्ता आपको इमोशनल ब्लैकमेल करके उसी ढलान पर छोड़ देता है। 

बेहतर इंसान वही है, जो आज के इस दौर में अपने करियर, अपनी मेहनत पर भरोसा करते हुए आगे बढ़ता है। संघर्ष चुनौतियां जीवन का हिस्सा हैं और अगर वो आपके काम में नहीं है, तो आप स्थिर हो रहे हैं और जीवन ठहराव का नाम नहीं है जीवन बहते पानी की तरह निर्मल और साफ होना चाहिए नहीं, तो पानी के जमने से जीवन में कई बीमारियों का खतरा है।  उम्मीद है आपमें से कई लोग जो इस पेशे में हैं अपने अनुभव से भी इसका आंकलन करेंगे। 


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