मानव तस्करी के दलालों से निपट रही हैं सहेलियां
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इसके बाद की कहानी आपतक नहीं पहुंचती. वापसी के बाद गांव में दोबारा नयी जिंदगी शुरू करना कितना आसान होता है. झारखंड के खूंटी, गुमला, सिमडेगा जैसे इलाकों में दलालों का ग्रुप आज भी सक्रिय है. पंचायतनामा के इस अंक में हम पलायन कई कहानियां लेकर आये हैं. क्या आपने इन कहानियों के आगे की हकीकत जानने की कोशिश की है. वैसी बच्चियां जिन्हें जगमागते शहर की अंधेरी गलियों से निकाल कर वापस गांवों तक लाया जाता है क्या होता है उनके साथ.
क्या
पुरानी तकलीफें भूल जाती
है ? जिस
मजबूरी में आकर उन्होंने शहरों
को रुख करती हैं,
क्या
वो गांव आते हीं दूर हो जाती
है ?.
पलायन
और दर्द की हर एक कहानी में
एक किरदार होता है.
हर
किरदार की एक अलग कहानी.
इस
बार पलायन के कहानी की अंत से
एक नयी कहानी की शुरूआत हो रही
है.
पढ़ें
उन बच्चियों के साथ क्या होता
है, जो
लौटकर अपने गांव आती है.
कई
संस्थाएं इन्हें आसारा देती
है,
एक
नयी जिंदगी की उम्मीद देती
हैं. यह
आशा जगाती हैं कि उन्हें भी
जिंदगी में सबकुछ हासिल करने
का अधिकार है जिसके वो सपने
देखती हैं. आशा
दे रहा है आसरा राजधानी
रांची से लगभग 25
किमी
की दूरी पर रिंग रोड के किनारे
भुसूर गांव में
दो मंजिला इमारत इन बच्चों
के भविष्य की नींव को मजबूत
करने में लगी है.
यहां
वैसे बच्चे हैं ,जो
ईट भट्ठा में काम करते थे.
यहां
वैसे बच्चे भी शामिल हैं,
जिन्होंने
पैदा होते ही ईट भट्ठों की
गरमाहट महसूस की.
आंख
खुली, तो
चिमनी से निकलता धुंधा देखा.
इस
काले धुएं में ही कई बच्चों
का बचपन खो गया.
आशा
संस्था (
एसोसिएशन
फॉर सोशल एंड ह्यूमन अवेरनेस)
के
संस्थापक सदस्य अजय कुमार
जयसवाल 1987
से
इस क्षेत्र में काम कर रहे
हैं.
खेती
के वक्त मजदूर घर का रुख करते
हैं.
यही
वक्त होता है जब माता पिता
अपने बच्चों से मिल पाते हैं.
सुनीता
की तरह सुमरी कुमारी ,
उर्मिला
,
पर्मिला,
राहुल
,
मुकेश
मुंडा,
पवन,
मनीला,
नितेन
जैसे कई बच्चे रहते हैं,
उर्मिला
डांसर बनना चाहती है,
कोई
फौज में जाना चाहता है तो टीचर
बनना चाहता है.
आशा
ने इनके जिंदगी में एक नयी
रौशनी दी है.
हिम्मत
दी है एक नया सपना देखने की. कैसे
चलते हैं ऐसे संगठन,
कहां
से आते हैं पैसे कई
सालों से बच्चों के बचपने को
सही दिशा दे रहे अजय बताते हैं
कभी – कोई
बड़े संगठन हमारी मदद कर देत
हैं लेकिन साल में कुछ महीने
ऐसे होते हैं जब हमारे पास
राशन के लिए पैसे नहीं होते.
ऐसे
में कुछ लोग हैं जो हमेशा मदद
के लिए तैयार रहते हैं.
सीसीएल
कभी अपने सीएसआर फंड से मदद
कर देता है तो कभी अनुराग गुप्ता
जैसे लोग एक फोन पर मदद के लिए
तैयार रहते हैं.
कई
माडवाड़ी संगठन वाले मदद कर
देते हैं.
इसी
तरह बच्चों के जीवन में आशा
बनी रहती है.
दलालों
से निपट रहीं हैं सहेलियां साल
2011
में
सखी सहेली नाम से एक ग्रुप
बना.
सुधा
ने इस ग्रुप को बनाने में अहम
भूमिका निभायी.
गांव
में एक्टिव दलालों से 9
साल
से निपट रही हैं.
कई
बार धमकियां मिली लेकिन सखी
सहेली एक्टिव होकर काम करती
रही.
आज
खूंटी और रांची में 500
लड़कियों
का ग्रुप मिलकर काम कर रहा है.
इसके
200
मेंटोर
एक्टिव हैं.
दलालों
को गांव से दूर रखने के लिए
लड़कियों ने अपनी किक का
इस्तेमाल किया .
जागरुकता
के लिए हथियार बना फुटबॉल.
कई
गांवों में टूनामेंट का आयोजन
किया गया.
ऐसी
कई लड़कियां आज शानदार फुटबॉलर
हैं जो कभी बड़े शहरों में
नौकरानी का काम कर रहीं थी.
अब
इस खेल और अभियान के जरिये
उनकी अलग पहचान है.
ग्राम
सभा में सखी सहेली अलग पहचान
बना रही है.
कौशल
विकास योजना से जुड़कर गांव
में ही ट्रेनिंग ले रहीं है. मिशाल
बन रहीं है कई लड़कियां
कुछ जगहों के नाम आश्रय घर (शेल्टर होम)
मेरा ब्लॉग है तो जाहिर है जिंदगी में मेरे अनुभव पर आधारित होगा. पत्रकार हूं, जो देखता हूं, सोचता हूं कई बार लिखता हूं तो कभी- कभी लिख नहीं पाता. यहां लिखता हूं, खुलकर यहां शब्दों की कोई सीमा नहीं कोई ये कहने वाला नहीं कि ये लाइन हटा दो, वो लाइन जोड़ लो. यात्रा करना पसंद हैं और लिखना शौक.
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