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नेतरहाट: एक चरवाहे की अधूरी कहानी - पहला भाग

मैगनोलिया प्वाइंट के मुहाने पर बैठा डूबते सूरज को निहार रहे थे, धीरे - धीरे बढ़ते अंधेरे के साथ कब मेरी आखें बंद हो गयी, पता नहीं चला. मैगनोलिया की कहानी इतनी बार सुन चुका था कि मैं अब उस दूसरे किरदार से मिलना चाहता था, जो कभी सामने नहीं आता. आखें बंद हुई, तो गुमनामी के अंधेरे में छुपे उस किरदार से मुलाकात आसान हो गयी

मंगलवार, 23 जनवरी 2018

/ by मेरी आवाज
 हम मैगनोलिया प्वाइंट के  मुहाने पर बैठा डूबते सूरज को निहार रहे थे, धीरे - धीरे बढ़ते अंधेरे के साथ  कब मेरी आखें बंद हो गयी, पता नहीं चला. मैगनोलिया की कहानी इतनी बार सुन चुका था कि मैं अब उस दूसरे किरदार से मिलना चाहता था, जो कभी सामने नहीं आता.

आखें बंद हुई, तो  गुमनामी के अंधेरे में छुपे उस किरदार से मुलाकात आसान हो गयी. मैं 10 -12  घर वाले एक छोटे से गांव में हूं. चारो तरफ घना जगंल,  सूरज माथे पर चढ़ा है, तेज धूप है. दूर कहीं चिड़िया के चहचहाने  की आवाज आ रही है. धीरे - धीरे जब मैं उस गांव की तरफ बढ़ा, तो चिड़िया की आवाज  कम होती गयी और तेज रोने की आवाज  बढ़ने लगी.  आवाज की दिशा में आगे बढ़ा, तो देखा एक घर के पास 20 - 30 लोग जमा हैं, मैं भी उनके साथ  खड़ा हो गया और यह समझने की कोशिश करने लगा क्या हुआ है.


अचानक लगभग 9 साल की उम्र का एक बच्चा अपनी आंखे पोछते हुए घर से बाहर निकला और  लकड़ियां जमा  करने लगा. मैं उसके पास गया और धीरे से पूछा क्या हुआ?.  मेरी आवाज अनसुनी कर दी उसने और लकड़िया चुनता रहा. थोड़ी देर बाद एक आदमी भागता हुआ बाहर आया और बच्चे को कहने लगा, बुतरु तुम्हारी मां बेहोश हो रही है, जाओ उसके पास रहो.उसने आंसू पोछे और अंदर चला गया. अचानक मेरी आंख खुली तो देखा सूरज डूब चुका था लोग जा चुके थे..


मुझे अंदाजा होने लगा था, कुछ तो बुरा हुआ है, तभी अंदर से कुछ लोग चादर में एक 35 से 40 साल के आदमी की लाश लेकर आये.  दाहसंस्कार की तैयारी हो रही थी. अचानक मेरी आंख खुल गयी. मैं मैगनोलिया प्वाइंट पर बैठा था. उस किरदार से मुलाकत अधूरी थी. मैं सोच रहा था क्या वो मैगनोलिया के प्रेमी की लाश थी, क्या उसका अंतिम संस्कार हुआ था, घर वालों को कैसे पता चला कि उसकी हत्या हुई. कहानी अधूरी थी और सवाल बहुत . अपने होटल वापस आया. खाना खाने के बाद भी मैं सोचते रहा....

नींद आयी तो मैं फिर उस किरदार के आसपास था लेकिन इस बार घरों की संख्या बढ़ गयी थी, जिन उदास चेहरो को भीड़ में देखा था, उनमें से कुछ रास्ते में मिले, वो बुढ़े हो गये थे. मैं सोच रहा था कुछ घंटों की दूरी में कितने साल गुजर गये. जिस घर से अधेड़ उम्र के व्यक्ति की लाश निकली थी.छोटा सा घऱ अब वह बड़ा हो गया था. घर के बाहर गाय, बकरी बधें थे. घर से  ढेंकी की आवाज आ रही थी ( चावल, चुड़ा कूटने वाली गांव की मशीन) थी. मेरी नजर घड़ी पर गयी तो सुबह के 5 बजे रहे थे.

अंदर गया, तो देखा एक 20 -21 साल का लड़का पसीने से तर है. उसके हाथ में एक रस्सी है ,जो छत से बंधी है. एक पैर जमीन पर है और दूसरे पैर से ढेकी कूट रहा है.  बड़े घुघराले बाल , सांवला रंग,  जिस बाजू से रोते रोते उसने  नाक पोछी थी वहां काले रंग की पट्टी में बंधी ताबीज. हट्टा कट्ठा  शरीर . मैं सोच रहा था काश में यहां से नहीं जाता ,तो इसे बड़ा होता देखता.  ये बुतरु था. मेरी नजर बुतरु से हटी तो दूसरी तरफ गयी जहां दूबले पतले शरीर के साथ किनारे बैठी मां ओखली से चावल निकाल- डाल  रही थी.

मैं कुछ देर बैठ रहा और दोनों को निहारता रहा, काम जैसे ही खत्म हुआ बुतरु ने ढेंकी छोड़ी और अपनी मां को गोद में उठाकर बिस्तर पर ले जाते हुए कहने लगा, कितनी बार कहा, सुबह उठने की जिद मत करो, मैं सारा काम कर लूंगा लेकिन तुम मानती कहां हो. मां बोली तू चला जाता है फिर शाम तक कहीं नहीं जा पाती, बिस्तर से हिल नहीं पाती  अब शरीर साथ नहीं देता. तू पानी खाना बिस्तर पर छोड़े जाता है, तो खा लेती हूं. दिन भर तो वहीं पड़ी रहती हूं.

मेरी गंदगी तक तुझे साफ करनी होती है और तू कहता है, तेरी इतनी भी मदद ना करूं. अरे मां अब सुबह सुबह शुरू मत हो .. मुझे जल्दी जाना है कहीं.  अगर साथ चलना  है, तो चलो. किसी से मिलाना है ... मां को बिस्तर पर रखते हुए बुतरु ने इशारों में कुछ समझाने की कोशिश की थी... मां ने हल्की सी मुस्कान के साथ कहा, तुझे क्या लगता है मैं बिस्तर पर पड़ी हूं, तो मुझे कुछ पता नहीं चलता. बेटे मां हूं तेरी मैं भले यहां हूं मेरी नजर हमेशा तेरे साथ होती है.

अच्छा सुन कभी घर ले आ उसे . अच्छा मुझे बात करने दे... मैं चुपचाप खड़ा इन दोनों की बातें सुन रहा था. मैं कहानी का अंत जानता था.  मैंने कहा, अरे मां जी अब समझ नहीं रही हैं बुतरु जिसके चक्कर में पड़ा है, अच्छे लोग नहीं है, रोक लीजिए इसे. मुझे सब पता है आगे क्या होगा रोक लीजिए मां जी ,  मैं उसकी मां से मिन्नतें कर रहा था मेरी कोई सुनने वाला ही नहीं था.मैं बुतरु को रोक रहा था उसकी मां को समझा रहा था.

मैंने महसूस किया कि मेरी आवाज उन तक नहीं जा रही है . समझ नहीं आ रहा था क्या करूं, कैसे रोकूं मुझे समझने में देर नहीं लगी. मैं कुछ नहीं बदल सकता इस कहानी में.  मैं एक दर्शक की तरह हूं, जो हो चुका वही होगा. बुतरु ने घर की दिवार पर बने मिट्टी के रेक से बांसूरी निकाली, बड़े प्यार से उसकी तरफ देखा, कमर में बंधे गमछे पर उसे खोंसा और जानवरों को खोलते हुए उन्हें हांकते निकल गया. मैं बीच में खड़ा कभी उसकी मां तो कभी बुतरु को जाता देख रहा था..

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